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"सम्पूर्ण गांधी वाङमय

मालका हिसाब और बीजक-बही रखता हूँ। मैं हिसाबको सिंगल और डबल एंट्रीकी पद्धति जानता हूँ।

मकान-मालिक श्री अब्दुल कादिरने कहा :

मैं एम० सी० कमरुद्दीन ऐंड कम्पनीका प्रबन्धक हूँ।... (जिसकी बात चल रही है) उस दूकानके लिए पहले परवाना जारी था। परवाना टिमोलको मिला था। डर्बन में मेरे ३ या ४ मकान हैं। मूल्यांकन-सूची में उनकी कुल कीमत १८,००० या २०,००० पौंड है। इस जायदादका ज्यादातर हिस्सा में किरायेदारों को किराये पर देता हूँ। अगर दादा उस्मानको परवाना नहीं मिलता तो मुझे किरायेकी हानि उठानी पड़ेगी। वे बहुत अच्छे किरायेदार हैं। मैं उन्हें लम्बे अरसे से जानता हूँ। उनका रहन-सहन अच्छा है। उनके घरमें साज-सामान बहुत है। . . . मैं परवाना-अधिकारीके फैसलेते सन्तुष्ट नहीं हूँ।

आपने उपनिवेशोंके प्रधानमंत्रियोंके सामने “अवांछित व्यक्ति" की जो व्याख्या की थी' उसकी परिषदको याद दिलाई गई। व्याख्या यह थी : "इसलिए कि कोई आदमी हमसे भिन्न रंगका है, वह जरूरी तौरपर अवांछनीय प्रवासी नहीं है। अवांछनीय' तो वह है, जो गन्दा है, या दुराचारी है, या कंगाल है, या जिसके बारेमें कोई अन्य' आपत्ति है, जिसकी व्याख्या संसद के कानून द्वारा की जा सकती है। परन्तु यह सब केवल अरण्य-रोदन सिद्ध हुआ। जिस परिषद-सदस्य ने १८९७ में प्रदर्शन-समितिका झण्डा उठाया था और जो कूरलैंड तथा नादरीके भारतीय यात्रियोंको “जरूरत होनेपर बल प्रयोग द्वारा" लौटानेके लिए तैयार था, वह " कायल नहीं हुआ" कि परवाना-अधिकारीकी कार्रवाई गलत है। और उसने प्रस्ताव किया कि उसके निर्णयकी पुष्टि कर दी जाये। प्रस्तावका समर्थन करनेके लिए खड़ा होनेको कोई तैयार नहीं था, और थोड़ी देरके लिए ऐसा मालूम हुआ कि परिषद न्याय करनेको तैयार है। परन्तु आखिर एक अन्य सदस्य श्री कालिन्स सहायताको बढ़े और उन्होंने निम्नलिखित भाषणके द्वारा प्रस्तावका समर्थन किया :

उन्हें आश्चर्य नहीं कि परिषद परवाना देनेसे इनकार करनेको बहुत अनिच्छुक है। परन्तु उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि परवाना देनेसे इनकार कर दिया जायेगा। र [उनके कथनानुसार] कारण यह नहीं है कि अर्जदार या व्यापारका प्रस्तावित स्थान अयोग्य है, बल्कि यह है कि अर्जदार एक भारतीय है। श्री गांधीने जो-कुछ कहा है वह बिलकुल सच है और उन्हें (श्री कालिन्सको) यह कहने में कुछ राहत महसूस हुई कि अधिकतर परवाने देनेसे इस आधारपर इनकार किया गया है कि अर्जदार भारतीय हैं। परिषदको एक ऐसी नीति अमलमें लानी पड़ रही है जिसे संसदने जरूरी समझा है। इससे परिषद बड़ी अप्रिय स्थितिमें पड़ गई है। नेटाली जनताके प्रतिनिधिके रूपमें संसद इस निर्णयपर पहुंची है कि भारतीयोंका डर्बनके व्यापारपर अपना प्रभुत्व बढ़ाना अवांछनीय है। इसलिए परिषदको ये परवाने देनेसे इनकार करने के लिये लगभग बाध्य हो जाना पड़ा है, जो अन्यथा आपत्तिजनक नहीं है। उन्होंने कहा, व्यक्तिगत रूपसे मैं मानता हूँ कि परिषदके सामने उपस्थित होकर परवाना माँगनेके लिए अर्जदार एक

१.देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३९३ ।