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प्रार्थनापत्र : चेम्बरलेनको

योग्यतम व्यक्ति है और उसे परवाना न देना उसके प्रति अन्याय है। परन्तु उपनिवेशको नीतिके तौरपर यह जरूरी पाया गया है कि इन परवानोंको संख्या बढ़ाई न जाये। (नेटाल ऐडवर्टाइज़र, १३ सितम्बर, १८९१) ।

यहाँ उल्लेख किया जा सकता है कि नेटालके लोकनिष्ठ लोगोंमें श्री कॉलिन्स एक प्रमुख स्थान रखते हैं। उन्होंने अक्सर परिषद के उपाध्यक्ष (डिप्टी मेयर) का स्थान ग्रहण किया है और वे एकाधिक बार स्थानापन्न अध्यक्ष (मेयर) भी रहे हैं। यह निर्णय ऐसे व्यक्ति ने किया, इसलिए अत्यन्त दुःखद और उतना ही महत्त्वपूर्ण भी था। हमारा आदरपूर्वक निवेदन है कि यदि तत्कालीन प्रधानमन्त्रीने नेटाल-संसदकी भावना सही-सही व्यक्त की थी तो, जैसा कि बादमें प्रकट होगा, संसदका मंशा उतनी दूरी तक जानेका कभी नहीं था, जितनी दूरी तक श्री कॉलिन्स चले गये। संसदका मंशा नये आनेवाले भारतीयोंको सब नये भारतीयोंको कदापि नहीं -परवाने प्राप्त करनेसे रोकने का था। और प्राथियोंको दृढ़ विश्वास है कि श्री कॉलिन्सने कानूनका जो अर्थ लगाया है, वही यदि सम्राज्ञी-सरकारके सामने पेश किया गया होता तो उसे सम्राज्ञीकी अनुमति कदापि न मिलती। मालूम होता है, श्री कॉलिन्स मानते हैं कि संसद ने टालके केवल यूरोपीय समाजका प्रतिनिधित्व करती है। प्रार्थी तो सिर्फ इतना ही कह सकते है कि यदि यह सच है, तो शोक का विषय है। जब भारतीयोंका मताधिकार सर्वथा छीन लेनेका प्रयत्न किया गया उस समय उन्हें दूसरी ही बात बताई गई थी। फिर, श्री कॉलिन्सने समझा कि विचाराधीन परवाना दे देनेका अर्थ परवानोंकी संख्या वृद्धि करना होगा। परन्तु सच तो यह है कि जिस मकानके लिए परवाना माँगा गया उसका इस सालके लिए परवाना था ही। वह इसलिए खाली हो गया था कि परवानेवालेको घाटा हुआ और उसने व्यापार बन्द कर दिया। इसलिए वर्तमान अर्जदारको परवाना देनेसे नगर (बरो) में परवानोंकी संख्यामें बढ़ती न होती।

एक अन्य परिषद सदस्य और डर्बनके प्रमुख वकील श्री लैबिस्टर सारी कार्रवाईसे इतने आजिज़ आ गये कि उन्होंने अपनी भावनाओंको इस प्रकार व्यक्त किया :

इस प्रकारको अपीलोंमें जिस उलटी-सीधी नीतिका अनुसरण किया जाता है उसके कारण वे जानबूझकर बैठकोंमें हाजिर नहीं होते। परिषद-सदस्योंसे जो गन्दा काम करनेको कहा गया है उससे उन्होंने मतभेद व्यक्त किया। अगर परिषद सदस्यों (बर्गेसों) का मतलब ऐसे सब परवाने बन्द कर देना है तो ऐसा करनेका साफ रास्ता मौजूद है। वह है-विधानसभासे भारतीयोंको परवाने देनेके विरुद्ध कानून बनवा लेना। परन्तु जब हम अपील सुननेवाली अदालतको हैसियतसे बैठे हैं तब, जबतक विपरीत निर्णयके लिए उचित कारण मौजूद न हों, परवाना देना ही चाहिए। (नेटाल ऐडवर्टाइज़र, वही तारखि)।

श्री लैबिस्टर, जैसा कि उन्होंने कहा, जानबूझ कर देरसे आये थे। इसलिए वे मत नहीं दे सके। फलतः प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे स्वीकृत हो गया और अपील खारिज कर दी गई। प्राथियोंकी नम्र रायमें उपर्युक्त मामलेसे ज्यादा मजबूत मामलेकी, या डर्बन नगर-परिषदने जो अन्याय किया है उससे बड़े अन्यायकी कल्पना करना करीब-करीब असम्भव है। फिर यह


१. मूल छपी हुई अंग्रेजी प्रतिमें तारीख गलत छपी मालूम होती है। देखिए " दादा उस्मानका मुफदमा,"

सितम्बर १४, १८९८ ।