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खादीकी प्रगति

अगर इन वादोंका सम्बन्ध उन वर्गोंके कातनेवाले लोगोंसे है, जिनका उल्लेख ऊपर उद्धृत पत्र में हुआ है तो मैं समझता हूँ कि यह अवांछनीय प्रलोभन है और विधान परिषद् तथा विधान सभा के सदस्य और वकील लोग अपना सूत शायद इस तरह मुफ्त नहीं बनवायेंगे। अगर वे इस खयालसे सूत कातते हैं कि अन्तमें उन्हें कताईका अच्छा-खासा पुरस्कार मिलेगा तब तो उनके चरखा चलानेका कोई महत्त्व ही नहीं रह जायेगा। ऐसे लोगोंको तो कताईसे प्रेम होने के कारण ही कातना चाहिए। अपने ही काते सुतसे बुना कपड़ा पहननेका सुख और सन्तोष उनके इस श्रमका पूरा पुरस्कार होना चाहिए। पुरस्कार तो उन लोगोंके लिए हैं, जो कातनेके इच्छुक नहीं हैं। हाँ, सेवा-भावसे कातनेवाले लोगोंमें भी जो जरूरतमन्द हों और जिनके लिए एक-एक पैसेकी बचतका मतलब अपनी दाल-रोटीके लिए उतने पैसे और प्राप्त हो जाना है, उनको पुरस्कार दिया जा सकता है।

सेवा-भावसे कताई करनेवालोंको पूनियाँ देनेका मतलब भिखमंगीको प्रोत्साहन देना है। जो लोग पूनियाँ खरीद सकते हैं, उन्हें वे मुफ्त में क्यों दी जायें, जबकि काता हुआ सूत उन्हींका होना है? बेशक, इतना काफी है कि उन्हें कताईकी सुविधाएँ दी जायें और उन्हें इस कलामें दक्ष बनानेके लिए जो कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण दरकार हो, वह दिया जाये। मुफ्त पूनियाँ तो सिर्फ दरिद्र लोगोंको दी जा सकती हैं, ताकि वे अपनी रोटी कमा सकें और उन्हें काम करनेकी प्रेरणा मिले, क्योंकि इस समय निठल्लापन सारे देशमें फैलता हुआ-सा लग रहा है। पहले तो हमें जबरदस्ती निठल्ला बनाकर रखा जाता था, किन्तु अब यही दोष हमारी आदत में शामिल होता जा रहा है। खादी-कार्यकर्त्ता यह बात कभी न भूलें कि खादीकी सारी योजनाका आधार यह मान्यता है कि करोड़ों लोग कामके अभाव में या तो पूरे वर्ष या कमसे-कम तिहाई वर्ष बेकार बैठे रहते हैं। इसलिए इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि खादी संगठनों द्वारा खर्च किया गया एक-एक रुपया इन करोड़ों अभावग्रस्त लोगोंकी ज़ेबमें जाये और सो भी दानके तौरपर नहीं, बल्कि उतने मूल्यके किये हुए किसी श्रमके पारिश्रमिकके रूपमें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १८-२-१९२६
 
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