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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यवहार करने और जिसको सुदूर लन्दन में अपील करनेका अधिकार देनेकी जरूरत है? प्रिवी कौंसिलको लन्दन में रखने के पक्ष में बड़े-बड़े उपनिवेशोंके दृष्टान्त देना बेकार है। वे तो भावनाके वशीभूत होकर इस असंगतिको कायम रखे हुए हैं। और कई उपनिवेशों में अपीलकी अन्तिम अदालतें अपने यहाँ ही रखनेके पक्ष में आन्दोलन चल पड़े हैं। भारतकी भावना उपनिवेशोंकी भावनासे उलटी है। आत्म-सम्मानी भारत कभी भी यह चीज बरदाश्त नहीं करेगा कि उसकी अपीलकी अन्तिम अदालत भारतसे कहीं बाहर हो।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १८-२-१९२६

३४. खादीकी प्रगति

अखिल भारतीय चरखा संघके मन्त्रीको चित्तूर जिला खादी बोर्डका एक पत्र मिला है, जिसमें सितम्बर, १९२५ से लेकर दिसम्बर, १९२५ तक लोगोंके अपने काते सूतसे तैयार की गई खादीके विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। पत्रका एक अंश नीचे दे रहा हूँ:[१]

ऊपर जो जानकारी दी गई है, उसका महत्त्व इस बात में निहित है कि इन खुद कातनेवालोंमें वकील, स्नातक, नगरपालिकाके एक पार्षद, विधान परिषद्के एक सदस्य और विधानसभा के भी एक सदस्य शामिल हैं। इन लोगोंने शायद अपने सभी या कुछ कपड़े अपने हो काते सुतसे तैयार कराये हैं, लेकिन सो कुछ पैसा बचानेके खयालसे नहीं, बल्कि इसलिए कि उन्हें इस चीजसे प्रेम है। महादेव देसाईने इसी अंक अस्यत्र नाथा पटेल नामक एक किसानका किस्सा बयान किया है। ऐसे किसान अपनी जरूरत के कपड़ोंके लिए मुख्यतः इस खयालसे सूत कातते हैं कि इस तरह वे काफी बचत कर लेते हैं। जैसा कि उसने खुद ही कहा है, उसे अपने परिवारपर सालाना २५० रुपये खर्च करने पड़ते थे। इस प्रकार खादीका आर्थिक महत्व भी है। और भावात्मक भी और दोनों समान रूपसे स्पृहणीय हैं।

मैं खादी-कार्यका संगठन करनेवालों और कातनेवालोंको उनकी शक्ति और लगनके लिए बधाई देता हूँ, किन्तु दुःखके साथ कहना पड़ता है कि पत्र लेखकने, लोग सेवा-भावसे कातें, इस चीजको प्रोत्साहन देनेके लिए जो योजना तैयार की है, उससे में सहमत नहीं हो सकता। वे ऐसे हर व्यक्तिको, जो किसी मान्यता प्राप्त कताई केन्द्र में महीना भर रोजाना एक घंटा सूत काते, उपहारस्वरूप एक तौलिया देनेका वादा करते हैं और फिर यह वचन भी देते हैं कि जो लोग ९० दिनोंतक रोजाना एक घंटा सूत कातेंगे उनका सूत मुफ्त बनवा देंगे।

 
  1. यहाँ इसका अनुवाद नहीं दिया जा रहा है।