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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करे तो वह इतने परिवर्तन मात्र से ही कमसे कम एक मनुष्यको एक महीनेकी रोजी दे सकता है, क्योंकि प्रति मनुष्य कपड़ेका सामान्य खर्च प्रतिवर्ष ८ रुपया होता है। इसमें ५ रुपये तो मजदूरीके हो जाते हैं, और हिन्दुस्तानमें करोड़ों मनुष्योंको इतने रुपये भी नहीं मिलते। हिन्दुस्तानकी वार्षिक आमदनी प्रति मनुष्य ३० रुपये गिनी जाती है। आमदनीका यह अन्दाज तीस वर्ष पहलेका है। महँगाईके कारण आज कुल आमदनी ४० रुपया समझी जाती है। लेकिन खर्चकी बढ़ती भी गिनी जानी चाहिए, इसलिए यह ३० रुपया आज भी मान लेनेमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन कोई भी अंक क्यों न लिया जाये, भारतमें ५ रुपये की रकम एक मनुष्यकी एक महीनेकी कमाईसे अधिक ही कही जा सकती है और इतना बड़ा पुण्य सम्पादन करनेके लिए राष्ट्रको सिर्फ अपनी भावना अथवा उससे भी कम, अपनी रुचि बदलनेकी ही आवश्यकता है। विलायतका या मिलका अच्छा लगनेवाला मुलायम कपड़ा, गरीबोंके हाथसे कते हुए सूतसे और गरीबोंके ही हाथकी बुनी खादीकी बनिस्बत हमेशा खराब ही होगा।

[गुजराती से]
नवजीवन, २८-२-१९२६

६८. सच्ची शिक्षा क्या है?

जिस अंग्रेजी शब्द के लिए "केलवणी"[१] [ शिक्षा ] शब्दका व्यवहार किया जाता है, उसका मूल अर्थ "बाहर लाना" है; अर्थात् हममें जो शक्तियाँ छिपी पड़ी हैं, उन्हें प्रयत्नपूर्वक बाहर लाना। यही भाव 'केलवणी' शब्दका है। जब हम अमुक वस्तुका विकास करते हैं तब उसका अर्थ उसकी किस्म अथवा उसके गुणको बदलना नहीं होता; हम उसीमें निहित गुणोंको मात्र व्यक्त करते हैं। इससे केलवणी [शिक्षा] का अर्थ विकास भी किया जा सकता है।

इस अर्थको ध्यान में रखकर विचार करें तो शिक्षामें अक्षर-ज्ञानको नहीं गिना जा सकता। फिर चाहे यह ज्ञान हमें एम० ए० बनाये अथवा हमने संस्कृत पाठशाला में संस्कृतका इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया हो जिससे हम शास्त्रीकी उपाधि से विभूषित हो जायें। ऊँचेसे-ऊँचा अक्षर-ज्ञान भी शिक्षाका एक अच्छा साधन तो माना जा सकता है, परन्तु वह स्वयं तो शिक्षा नहीं ही है।

शिक्षा कुछ अलग ही वस्तु है। मनुष्य शरीर, मन और आत्मा इन तीन वस्तुओं से बना प्राणी है। इसमें आत्मा ही मनुष्यका स्थायी अंश है। शरीर और मनका व्यापार तभी शोभित होता है, जब वह आत्माकी सेवामें प्रयुक्त होता है। इसलिए जिसके द्वारा आत्माकी शक्ति प्रकट हो, ऐसी वस्तुको ही शिक्षा कहा जा सकता है और इसीसे हम विद्यापीठकी मुहरपर "सा विद्या या विमुक्तये" लिखा देखते हैं।

अथवा शिक्षाका दूसरा अर्थ भी किया जा सकता है। अर्थात् जिसके द्वारा शरीर, मन, आत्मा इन तीनोंका सम्पूर्ण अथवा अधिकसे-अधिक विकास हो, उसे

 
  1. गुजरातीमें