कथनसे होता है कि जिनका मन शान्त है वे अपने स्वास्थ्यके बारेमें किसी प्रकारकी शंका किये बिना संयमका पालन कर सकते हैं। स्वास्थ्यका आधार विषयभोगको इच्छाको शान्त करना कदापि नहीं है।
प्रोफेसर एल्फ्रेड फोनियर लिखते हैं, 'आत्मसंयमसे युवकोंके लिए सम्भाव्य खतरोंको लेकर अनुचित और बे-सिरपंरकी बातें कही जाती हैं।' आपसे में कहता हूँ कि इन खतरोंके अस्तित्वसे मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। यद्यपि अपने पेशेके दौरान उनके बारेमें जानकारी होनेके पूरे मौके होते हुए भी एक चिकित्सकको हैसियतसे मेरे पास उनके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है।
इसके अतिरिक्त, शरीर-शास्त्रका ज्ञाता होने की हैसियतसे मैं तो यह कहूँगा कि २१ वर्ष या लगभग २१ वर्षकी अवस्थाके पहले सच्ची वीर्य-पुष्टता आती हो नहीं है और उसके पहले विषयभोगको आवश्यकता प्रतीत नहीं होती खास तौरपर जबकि असमय ही कुत्सित उत्तेजनाओंसे कुवासनाको उभारा न गया हो। कच्ची उम्र में विषयको इच्छा प्रायः अस्वाभाविक है और यह अयोग्य लालन-पालनका फल है।
कुछ भी हो, यह तो निश्चित ही है कि खतरा स्वाभाविक प्रवृत्तिके संयमको अपेक्षा उसको उत्तेजन करने में अधिक है। आप मेरा आशय समझ गये होंगे।
हम ऐसे कितने ही विश्वस्त प्रमाण देते चले जा सकते हैं किन्तु अब अन्तमें, हम उस प्रस्तावका उद्धरण यहाँ देना चाहते हैं जो कि सन् १९०२ में ब्रसेल्स नगरमें आयोजित एक परिषद्के[१] अवसरपर १०२ सदस्योंकी उपस्थिति-में, जिसमें कि संसार-भरके विशेषज्ञ आये हुए थे, स्वीकृत हुआ था। 'सबसे जरूरी बात तो तरुणोंको इस बातकी शिक्षा देना है कि पवित्रता और संयम किसी भी अवस्थामें हानिप्रद नहीं है; बल्कि ये ऐसे सद्गुण हैं जिन्हें खालिस वैद्यकीय और स्वच्छता सम्बन्धी दृष्टिसे भी उपयोगी होने के कारण मनःपूर्वक प्रचारित किया जाना चाहिए।'
कुछ वर्ष पूर्व एक ईसाई विश्वविद्यालयके चिकित्सा विभागके आचार्यांने भी सर्वसम्मतिसे यह घोषित किया था कि 'ब्रह्मचर्यको स्वास्थ्यके लिए हानिकारक कहना निराधार है। हम सभीका यही अनुभव है। हममें से किसीने इस प्रकारके जीवनसे कोई हानि होते नहीं देखी है।'
मामला पूरी तरह सामने रख दिया गया है और अब नीतिविद् तथा समाज-शास्त्र धुरंधर रुसिन द्वारा लिखी गई इस सर्वविदित बातका अनुमोदन कर सकते हैं कि भोजन आदि शारीरिक आवश्यकताओंकी तरह 'विषयभोगकी
- ↑ इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑफ सेनिटरी ऐंड मॉरल प्रोफिलेक्सिसका दूसरा अधिवेशन।