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६३. क्या यह जीवदया है ?- ७

एक भाईके पत्रके अवतरण उन्हें संक्षिप्त करनेकी दृष्टिसे में अपनी भाषामें दे रहा हूँ। प्रत्येक प्रश्नके नीचे उसका उत्तर भी दे रहा हूँ।

जीव-मात्र तड़प-तड़पकर मरता है। नरकमें पड़ा हुआ व्यक्ति भी जीनेकी इच्छा रखता है। कुत्तेको भी मरना अच्छा नहीं लगता। इसलिए जो मनुष्य उसे मारता है वह उसे दुर्गति देने में सहायक होता है।

एक मनुष्य दूसरेको मारकर उसे दुर्गति किस तरह देता है, यह मेरी समझके बाहर है। मनुष्य खुद ही अपने बन्धन और मोक्षका कारण होता है, दूसरोंके बन्धन और मोक्षका नहीं। अहिंसाधर्मका पालन अपने मोक्षके लिए होता है।

जो मनुष्य अपने सुखके लिए हिंसा करता है वह अपनी शक्तिका दुरुपयोग करता है।

यह निर्विवाद है। मैंने जहाँ भी कुत्तोंके वधका सुझाव दिया है वहाँ कुत्तोंका हित ही प्रधान हेतु है। उसमें मनुष्यका सुख भी है लेकिन वह गौण है। जो अपने सुखके लिए वध करता है वह तो हिंसा ही करता है।

यदि आप ऐसा मानते हैं कि जीवका तो नाश नहीं होता, नाश तो केवल देहका ही होता है, इसलिए उसका नाश जल्दी हो या देरसे, इससे क्या फर्क पड़ता है, तो यह ठीक है; लेकिन इससे मनुष्यको दूसरोंके प्राण लेनेका अधिकार नहीं मिलता।

इसके बारेमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है। ऐसी हिंसा भी हम अनिवार्य समझ कर ही करते हैं; उदाहरणके लिए आहारादिके निमित्त होनेवाली हिंसा। देह नाशवान होनेसे यद्यपि दूसरोंके प्राण लेनेका इजारा मनुष्यको नहीं मिलता लेकिन आवश्यकता पड़नेपर उसका नाश करनेमें संकोच करना देहके प्रतिक्षण होनेवाले नाशको भूल जानेके समान है। सड़े हुए हाथको काटनेमें देहका नाश है तथापि हम उसे काटते हैं।

और यदि हम उस प्राणीके सुखका विचार करके उसे मारें तो यह भी मोह है। सुख-दुःख जैसी कोई चीज जगतमें है ही नहीं। आप दूसरेको तड़पता हुआ नहीं देख सकते, यह बात आपके अज्ञानकी परिचायक है। दूसरोंके सुख- दुःखका जिसपर असर नहीं होता वही भव्य आत्मा है और इससे वह किसीकी भी हिंसा नहीं करता।

इस प्रश्नमें निहित दलीलमें में विचार-दोष देखता हूँ ऐसा विचार-दोष जिसकी ओर शायद दलील करनेवालेका ध्यान नहीं गया है। दूसरोंके सुख-दुःखका जहाँ असर नहीं होता वहाँ न तो दया है, न धर्म और न अहिंसा ही है। दूसरोंके सुखकी शोध