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क्या यह जीवदया है ? - ७

करनेमें ही अहिंसाकी शोध हुई है। मनुष्यने जब अपनेको दूसरोंमें देखा और दूसरोंको अपने में देखा तब वह दूसरोंके सुखमें सुखी हुआ, और उनके दुखमें दुखी। इसीके फलस्वरूप उसने अपने ऐहिक सुखके त्यागमें आत्मिक सुखका अनुभव किया और उसने अपने स्वार्थके लिए मूक प्राणियोंकी हिंसा करना बन्द कर दिया।

संसारियोंके दुःखको मिटानेका प्रयत्न करना यह दृष्टि ही संसारमूलक है इसलिए उसमें ही हिंसा है। तो फिर उससे अहिंसाका प्रतिपादन कैसे हो सकता है?

पत्र-लेखकका यह वाक्य ऐसा है जो उसे अथवा किसीको भी शोभा नहीं देता। हम सब संसारके दुःखको मिटानेका सतत प्रयत्न करते हैं। भूख, प्यास, सर्दी और गर्मीको मिटाने में हम अपना बहुत सारा समय खर्च करते हैं। लेकिन जो अपनी ही भूख-प्यास आदि मिटाकर चैनसे बैठ जाते हैं उन्हें स्वेच्छाचारी भोगी कहा जाता है। वीतराग तो वही है जो दूसरोंकी भूख-प्यास मिटाकर अपनी मिटानेका अल्प प्रयत्न करता है।

एक अन्य भाई लिखते हैं:

आप रायचन्दभाईके लिखको भूल गये जान पड़ते हैं। आपने उनसे पूछा था 'मुझे जब साँप काटनेके लिए आए तब मुझे क्या करना चाहिए'? उन्होंने कहा था, "तुम अपने देहको जाने दो लेकिन साँपको मत मारो। अब कुत्तोंके बारेमें आप दूसरी नीति अपनाते जान पड़ते हैं।

मैं दूसरी नीति नहीं अपना रहा हूँ। अपने लिए किसीको मारनेकी बातका मैंने समर्थन नहीं किया है। मेरा ऐसा प्रयत्न है कि मुझे साँप काटनेके लिए आए अथवा कोई मारनेके लिए आए, तब उसे मारकर में जीनेकी इच्छा न करूँ और भगवान मुझे देहको नष्ट होने देनेकी शक्ति प्रदान करे। हमारी यह चर्चा सामाजिक हितकी और दुःखसे तड़प रहे प्राणीके हितकी दृष्टिसे की जा रही है। कष्टसे पीड़ित सर्पको, जिसे जिलानेका मेरे पास कोई इलाज नहीं है मारना चाहिए अथवा नहीं अथवा मेरे संरक्षणमें रहनेवाले किसी व्यक्तिको कोई सर्प काटनेके लिए आए और उसे भगानेकी मेरी शक्ति न हो तो रक्षितकी रक्षाके लिए मुझे उस सर्पको मारना चाहिए अथवा नहीं यह प्रश्न मैंने रायचन्दभाईसे पूछा होता तो रायचन्दभाईने इसका क्या उत्तर दिया होता, यह बात हममें से कोई भी निश्चित रूपसे नहीं कह सकता। अपने अभिप्रायके बारेमें मेरे मनमें कोई शंका नहीं है।

एक तीसरे भाई लिखते हैं:

आपके लेखोंके प्रति मेरे मनमें बहुत श्रद्धा है। लेकिन आपके अभी हालके लेखोंसे शंका उपजती है। श्रीमद् अमृतचन्द्र आचार्यजीके मतसे आपका मत विरुद्ध दिखाई देता है हालांकि आजतक आपका और आचार्यजीका मत मिलता मालूम होता था। वे कहते हैं:[१]

  1. मूल संस्कृत श्लोक नहीं दिये जा रहे हैं।