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७९. पत्र : सी० विजयराघवाचारीको

आश्रम
साबरमती
२५ नवम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र[१] मिला। क्योंकि में नहीं समझता था कि मैं कुछ कर भी सकूँगा या नहीं, अतः क्या मैंने अपने पहले पत्र में यह नहीं लिखा था कि इस वर्ष कांग्रेसमें मेरा शरीक होना निश्चित नहीं है? फिर भी यदि मेरी अनुपस्थितिका गलत अर्थ निकाले जानेकी जरा भी सम्भावना हुई तो मैं निश्चय ही वहाँ जाना नहीं टालूंगा। लेकिन जब चुनावका यह दूषित जोशोखरोश ठंडा हो जायेगा, तब मैं मित्रोंसे सलाह् लूंगा।

हिन्दू-मुस्लिम एकता के बारेमें मेरा रुख अपरिवर्तनशील है। में तनिक-सी भी सौदेबाजीके बिना, एकता कायम कराना चाहता हूँ और इसके लिए मैं जो कोशिश सम्भव होगी करूँगा।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सी० विजयराघवाचारी

आराम, सेलम

द० भारत

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १२०८७) की फोटो नकलसे।

८०. पत्र : एल० आर० पांगारकरको

आश्रम
साबरमती
२५ नवम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैं दिलसे उसकी कद्र करता हूँ। मैं आपको इसका कुछ अन्दाज नहीं दे सकता कि मैं उन सभी तरहके विषयोंपर जो मेरे पास भेजे जाते हैं, लिखना या कहना कितना टालता हूँ। लेकिन कुछ मामलोंमें पूछे गये प्रश्नोंपर

  1. अपने १७ नवम्बर के पत्र में विजयराघवाचारीने गांधीजीकी तुलना चंदनसे की थी “जो कुचलनेवाले हाथको सुगंधित करता है और आहिस्तेसे छूनेवाले हाथको सुगंध नहीं देता " और आशा व्यक्त की थी कि गौहाटी कांग्रेस अधिवेशनमें गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या हल करेंगे (एस० एन० १२०८३)।