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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अहिंसाका सवाल उठाया ही नहीं है। जिस तरह मोहमें पड़कर माता अपने बालकका पक्ष लेती है, उसी प्रकार अर्जुनके मनमें स्वजन और परजनका भेद उपजा है।

'भगवद्गीता' में सारी बीमारियोंको एक जगह समेट दिया गया है। अलग-अलग बीमारियोंकी वैद्य अलग-अलग दवा देते हैं, किन्तु आधुनिक कालमें वैद्यक शास्त्रकी खोजोंके आधारपर वैद्य इस निर्णयपर आते जा रहे हैं कि बीमारियाँ दिखाई अलग-अलग पड़ती हैं, किन्तु अन्ततोगत्वा वे अनेक नहीं हैं। वे सब किसी एक ही कारणसे उत्पन्न होती हैं और उनका उपाय भी एक ही हो सकता है। इसी तरह भगवान् कहते हैं कि आध्यात्मिक बीमारी एक ही है, कारण भी एक है और उसका उपाय भी एक ही है। ऐसी एकता सिद्ध करनेके लिए एक आत्यंतिक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। स्वजन यदि वधके योग्य हों तो उनका वध किया जाना चाहिए; पृथ्वीका नाश भी उससे होता हो तो आगा-पीछा नहीं करना चाहिए। यह अर्जुनका अधिकार ही नहीं, बल्कि यह तो उसका कर्त्तव्य है। स्वजनको मारनेका संयोग आ जाये तो क्या तब भी इस नियमका कोई अपवाद नहीं हो सकता? इस प्रश्नका अर्जुनको निश्चय-पूर्वक उत्तर दिया गया है, इसलिए यह निश्चयवाद है। यह उसी तरह है जिस तरह सत्यके पालनमें अपवाद नहीं होता; क्योंकि सत्य परमेश्वर है और यदि सत्यका अपवाद हो तो परमेश्वर भी सत्यासत्य हो जाये। इसलिए जो दृष्टान्त लिया गया है, वह निरपवाद है।

श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं, तू बातें बड़ी चतुराईकी करता है। 'गीताजी' में न तो कर्म-मार्ग बताया गया है, न ज्ञान-मार्ग और न भक्ति-मार्ग। व्यक्ति चाहे जितना वैराग्य अपना ले, चाहे जितने कर्म करे, भक्तिमें डूबा रहे, तो भी जबतक वह अहंभाव, ममत्वको नहीं छोड़ता, तबतक उसे ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। ममत्व छोड़नेपर ही उसे आत्मदर्शन हो सकता है। जो ममत्व छोड़ चुका है, आत्मदर्शन उसीके लिए शक्य है। अंग्रेजीमें 'आई' लिखते समय एक खड़ी लकीर बनाई जाती है और उसके ऊपर बिन्दु अर्थात् शून्य रखा जाता है। यह अहंभाव शून्य हो जानेपर ही आत्मज्ञान होता है। व्यक्तिने किस हदतक अपनी अकड़को छोड़ा है, वह कितना विनयशील बना है, इसे देखकर ही उसकी भक्तिको समझा जा सकता है। अहंके शून्य हो जाने पर भक्त बगुला-भक्त नहीं होगा, ज्ञानी होगा। आडम्बरशून्य व्यक्ति ही ज्ञानी है। 'गीता' उक्त तीन मार्गों में से किसी एकका उपदेश नहीं करती बल्कि कहती है कि ये एक ही हैं। मुझे ऐसा लगा है कि 'गीता' यही बतानेके लिये लिखी गई है। हम जिस हदतक ममत्व छोड़ेंगे, उसी हदतक सत्यका पालन कर सकेंगे। यही समझानेके लिए श्रीकृष्णने यह सुन्दर मीमांसा की।

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रविवार, ७ मार्च, १९२६

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥(२, १३)