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'गीता-शिक्षण'

अनुसार ही हुआ है। अंग्रेज कवियोंने भी ऐतिहासिक पात्रोंको लेकर नाटक और काव्य रचे हैं। विश्वामित्र ऋषिने गोमांस चुराकर खाया या नहीं, चमारके यहाँ खाया या नहीं, महाभारतकार मनमें ऐसे प्रश्नोंको उत्पन्न करता है। इस तरह 'महाभारत' के लेखकने तीन प्रकारकी समस्याओंको उपस्थित किया है।

[१०]

शनिवार, ६ मार्च, १९२६

आजसे 'भगवद्गीता' की विषय-वस्तु शुरू हो रही है, इसलिए हम पहलेकी तरह झपाटेके साथ आगे नहीं बढ़ सकेंगे। रायचन्दभाईने कहा है कि निर्दोष सुख, निर्दोष आनन्द कहींसे भी मिले ले लो। इसी तरह 'गीता' का अर्थं करते हुए भी हम अनेक बातें ग्रहण करेंगे।

[ इस दूसरे अध्यायके ] ग्यारहवें श्लोकसे अन्तिम अध्यायतक अर्जुनकी शंकाओंका समाधान करनेवाले तर्क चलते हैं। पहले भगवान् कृष्ण यह बताना चाहते हैं कि आत्मा और शरीर अलग-अलग हैं; क्योंकि आत्मज्ञानके लिए पहली बात यही जाननी होती है। कुछ बातें हमें पहलेसे जान लेनी चाहिए, तभी हम बढ़ सकते हैं। कल्पना की गई है कि अर्जुन जिज्ञासु, आत्मवादी, यम-नियमोंका पालन करनेवाला व्यक्ति है और इसलिए पहले आत्मज्ञानकी बात कही गई है। ब्रह्मचर्य और सत्यका पालन करनेवालेको ही [ आत्मज्ञानके] अभ्याससे सम्बन्धित प्रश्न पूछनेका अधिकार होता है और उसीको ऐसे प्रश्नोंका उत्तर दिया जा सकता है। अर्जुनके पास यह पात्रता है; उसमें दासत्व है, विनय है।

गीता-विचारकी नींव किस बातपर है, अभीतक हमने इसे पूरी तरह नहीं देखा है। कल हम इस विषयकी चर्चा कर रहे थे कि स्वजनोंको मारना बुरा है अथवा उन्हें न मारना। उत्तरमें कहा गया कि तू स्वजन और परजनका भेद भूल जा। हिन्दू धर्म-शास्त्रोंमें कहा गया है कि अहिंसा ही परम धर्म है, इसलिए मारने, न मारनेका प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता। ऐसा प्रश्न तो नास्तिक ही उठायेगा। अर्जुनने यम-नियमों[१] का पालन किया है, जिनमें अहिंसाको तो पहला ही स्थान दिया गया है। किन्तु अहिंसा एक ऐसी वस्तु है, जिसका सर्वांशमें पालन करना अशक्य है। विचारोंमें उसका पालन शक्य है, किन्तु व्यवहारमें उसका सम्पूर्ण पालन अशक्य है। शंकराचार्यने कहा है कि 'घासके एक तिनकेसे बूंद-बूंद करके सागरको उलीचकर खाली कर देनेके लिए जितने धैर्यकी आवश्यकता है, मोक्ष पानेके लिए मुमुक्षुको उससे भी अधिक धैर्य रखना चाहिए।' इसी तरह पूर्णत: अहिंसक बननेके लिए भी इतने ही धैर्यकी आवश्यकता है। देहमें रहते हुए अहिंसाका सम्पूर्ण पालन अशक्य है। इसीलिए मोक्षको परमधर्म कहा है। हिंसा तो भाग्यमें लिखी है। जबतक पलकें खुलती बन्द होती हैं, अथवा नख काटना आवश्यक है तबतक कुछ-न-कुछ हिंसा तो करनी ही पड़ेगी । 'गीता' आगे चलकर कर्ममात्रको दोषमय कहती है। इसलिए अर्जुनने हिंसा-

  1. अहिंसासत्यमस्तेयशौचमिन्द्रियनिग्रहः । मनुस्मृति (१० । ६३)