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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यासके मनमें तो भाव दूसरा ही था। वे चाहते थे कि 'महाभारत' इस तरह लिखा जाये कि एक बालक या बालिका भी उपदेश ग्रहण कर सके, तथा सद्गुणी व्यक्तियोंका आदर्श सामने रखें और दुर्गुणी लोगोंसे दूर रहें। वे तो हमारे मनके भीतरकी अच्छी वृत्तियोंको प्रबल करके बुरी वृत्तियोंको दबा देना चाहते थे। स्त्रियोंके लिए भी उन्होंने द्रौपदीका उदाहरण सामने रखकर सिखाया कि संकटके समय उन्हें सिंहकी तरह गरजना चाहिए और अपने धर्मकी रक्षा करनी चाहिए। ऐसी गर्जना करके द्रौपदी अर्जुन, युधिष्ठिर और भीमको जाग्रत कर देती थी। महाभारतकारने स्त्रियों को बड़ा ऊँचा दर्जा दिया है, किन्तु 'महाभारत'का मुख्य उद्देश्य तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म युद्धकी बात करना ही है। हमारे शरीरमें जो अर्जुन आदि पाण्डव कौरवोंसे युद्ध कर रहे हैं, इसमें उसीकी बात है। सूक्ष्म युद्धके धर्म-संकट स्थूल युद्धमें उत्पन्न होनेवाले संकटोंकी अपेक्षा अधिक कठिन होते हैं। स्थूल त्रुटिके परिणामस्वरूप नाशवन्त शरीरका नाश होता है, किन्तु यदि सूक्ष्म युद्धमें त्रुटि हो जाये तो परिणाम नरक-निवास होता है। मलिन उद्देश्यका दण्ड बहुत कड़ा कहा गया है। कालान्तरमें लोग पाण्डवों और कौरवोंको भूल जायेंगे। इस युगके क्षय हो जानेपर उनकी स्मृतिका भी क्षय हो जायेगा। हमें यह मोह नहीं करना चाहिए कि सभी युगों में लोग इनकी याद बनाये रखेंगे। इस युगके पहले भी अनेक युग हो चुके हैं। जब इन सभी युगोंकी स्मृति नष्ट हो जायेगी, तब भी हृदयमें यह जो युद्ध चल रहा है वह तो चलता ही रहेगा। उससे किस तरह त्राण पाया जा सकता है, 'गीता' यह बताती है। व्याधके बाण मारनेसे जिसकी मृत्यु हुई कृष्ण वह नहीं है और न अर्जुन ही वह है जिसका गाण्डीव हाथसे छूट गया था। कृष्ण तो आत्मा है और वह हमारा सारथी है। उसके हाथमें अपनी लगाम दे देनेपर ही हम जीतेंगे। ईश्वर नटकी भाँति हमें नाच नचाता है। नटके इशारेपर नाचनेवाली कठपुतलियोंसे भी छोटे हैं हम। इसलिए हमें चाहिए कि जिस तरह बालक अपने-आपको माता-पिताके हाथमें छोड़ देता है, उसी प्रकार हम अपनी बागडोर ईश्वरके हाथमें दे दें। हम कच्चा अनाज न खायें। भगवान् कृष्ण-रूपी रसोइया हमारे लिए आत्मिक प्रसाद पकाये और वह जितना चाहे उतना हमें दे।

'गीता' हमारी तरफसे कोई निर्णय नहीं करती। भगवान् कृष्ण अठारह अध्यायों में केवल इतनी ही बात समझाकर कहते हैं कि यदि तुम ममत्वको छोड़कर धर्मकी दृष्टिसे ही संकटकी घड़ी में निर्णय लोगे तो त्रुटि होनेपर भी तुम्हें शोक नहीं करना पड़ेगा।

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बुधवार, १० मार्च, १९२६

'मात्रास्पर्श' से सम्बन्धित श्लोकमें जागरणके साथ निद्राका समावेश भी है। हमें तो एक चेतनायुक्त यन्त्र बन जाना है। ऐसी तन्मयता आत्मसात् करें, जिस तरह सोये हुए व्यक्तिको किसी बातका भान नहीं रहता उसी तरह हमें भी किसी वस्तुका भान न रहे। हजरत अलीने कहा है कि जब वे नमाज पढ़ने लगें, उस समय उनके शरीरमें बिंधा हुआ बाण खींच लिया जाये, क्योंकि उस समय वे खुदामें तल्लीन