पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११३
'गीता-शिक्षण'

हो जायेंगे। निद्राके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बाण बिंधा हुआ है तो सम्भवतः नींद आये ही नहीं। हजरत अलीकी तरह जो व्यक्ति कर्त्तव्य मात्रमें तल्लीन हो सकता है, जो व्यक्ति चौबीसों घंटे ऐसी अवधूत स्थितिमें रहता है, वही अमरत्व प्राप्त करता है।

अब मात्रास्पर्शोको असत्य बतानेका कारण दिया जा रहा है:

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदशभि:॥ (२,१६)

जो असत् है उसका भाव नहीं है और जो सत् है उसका अभाव नहीं है। सूर्य भी आता-जाता रहता है। मोमबत्ती है भी और नहीं भी है। क्योंकि जल जानेके बाद वह पंचमहाभूतोंमें मिल जाती है। नाम-रूपका नाश है किन्तु ईश्वरकी कृतिके रूपमें उसका नाश नहीं है।

[ १४ ]

गुरुवार, ११ मार्च, १९२६

ज्ञानियोंने देखा है कि कुछ वस्तुएँ सत् हैं और कुछ असत्। नाम और रूप काँचकी तरह तड़क जानेवाली चीजें हैं। ज्ञानी इस बातको जानते हैं कि सत् और असत्के बीच जो भेद है उसमें किन-किन बातोंका समावेश होता है। हम तो एक मोटा भेद जानते हैं — ईश्वर सत् है और शेष सब कुछ असत्।

हम प्राणोंका त्याग करके आश्रमकी प्राणप्रतिष्ठा कर सकते हैं। यहाँ बने हुए मकान और यहाँकी जमीन नाशवन्त है किन्तु यदि हम लोगोंने उसमें प्राणकी प्रतिष्ठा की है तो उसका नाश नहीं होगा।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥ (२,१७)

जिससे अखिल आच्छादित है उस तत्त्वको अविनाशी जान। कोई भी उस अव्ययका नाश नहीं कर सकता।

अनेक गोवर्धन पर्वत कनिष्ठिकापर उठानेवाले इस अशरीरीको अविनाशी समझो।

अव्यय अर्थात् जिसे कोई खर्च न सके।

[ १५ ]

शुक्रवार, १२ मार्च, १९२६

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। (२,१८)

[ नित्य द्वारा धारण किये हुए शरीरियोंके शरीर अन्तवन्त हैं।

नित्य अविनाशी है, अप्रमेय है; इसलिए हे भारत, तू युद्ध कर। ]

३२-८