पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/१५

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ग्यारह

है, केवल साधुताका है" (पृष्ठ १८६)। इतना ही नहीं, बुराईका अस्तित्व भी तो ईश्वरके कारण है। वही रावण बनकर प्रकट होता है, और मानवको वीरताके कर्म करनेका आह्वान देता है। बुराईका अस्तित्व भी इसीलिए तो है कि उसके प्रतिकार-में मानव तपस्वी बने, मनकी शान्ति और पवित्रता हासिल करे और इस प्रकार ज्ञान-संवर्धन करे। राजा जनकका उदाहरण और श्रीकृष्णका उपदेश इन दोनोंको हमारे अनुभवोंपर अभिभावी होना चाहिए, क्योंकि “हम अपूर्ण मनुष्य हैं और अपूर्ण अनुभवके बलपर अपूर्ण सिद्धान्त निश्चित कर लेते हैं" (पृष्ठ ३५८)। इस प्रकार इन कर्मयोगियोंने जिस सत्यकी शिक्षा दी, और गांधीजीने केवल 'गीता-शिक्षण' के इन २१८ प्रकरणों में ही नहीं, बल्कि अपने समग्र लम्बे जीवन-भर जिसकी उदार व्याख्या की वह सत्य यह है कि कर्मके मार्गसे ही हम ज्ञानतक पहुँच सकते हैं और यह अनवरत, अनासक्त कर्म और सच्चा आत्म-निरीक्षण ही हमारे अहम्का विनाश कर सकता है और हमें यह आनन्दमयी अनुभूति कराता है कि "सारे जगत् में ईश्वर ही ईश्वर है" (पृष्ठ २०६) तथा हममें और "दूसरे जीवों में कोई अन्तर नहीं है" (पृष्ठ २६२)।