पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
दस

दृष्टान्त देते हुए गांधीजी राजा हरिश्चन्द्रका, जो अपनी पत्नीका गला काटनेके लिए उद्यत हैं, या ऑपरेशन करते हुए किसी सर्जनका और ऐसे पथिकका उदाहरण पेश करते हैं, जो मार्गमें पड़े हुए किसी घायल व्यक्तिके अध-कटे गलेको दयार्द्र होकर पूरा काट देता है (पृष्ठ १७२-७३)। अतः व्यवहारमें कर्मका मतलब होगा प्रत्येक कर्ममें घटित होनेवाली अहिंसाकी मात्राको अल्पतम करना (पृष्ठ ३५०) "जो कर्म यज्ञार्थ किया जाता है, वह बन्धनकारक नहीं होता" (पृष्ठ ३५१)।

हिंसाके विरुद्ध जो आपत्ति उठाई जाती है, वह कोई हठधर्मी नीतिशास्त्रके आधारपर नहीं उठाई जाती बल्कि वह तो सीधी-सी मानस शास्त्रकी बात है। हिंसाका निषेध तो हमारी मानव-सुलभ सहज संवेदनशीलता ही करती है। "दूसरोंके दुःखोंके नाशकी इच्छा ... 'महास्वार्थ' है" (पृष्ठ २४१)। हमें यह स्पष्ट रूपसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी सारी क्रियाएँ स्वार्थ-प्रेरित होती हैं, लेकिन यह स्वार्थ आखिर है क्या? "यदि यह स्वार्थ आत्मासे सम्बन्धित हो तो उसकी वह प्रवृत्ति परोपकार-प्रवृत्ति ही होगी । उसके सारे काम सेवा-धर्मके अंग बन जायेंगे" (पृष्ठ ३५९)।

जब हम कहीं अन्याय होता देखते हैं या अकारण ही किसीको दुःख भोगता पाते हैं, तो हमें मर्मान्तक पीड़ा होती है। हमारे मनमें विक्षेप उठते हैं और विषाद छा जाता है। "जबतक रोगकी परिस्थिति इतनी खराब नहीं हो जाती, हम परम औषधिके लिए आतुर नहीं होते। इसे प्रसूतिकी वेदना समझिए" (पृष्ठ ३५७)। मदान्ध होकर दूसरोंपर आक्रमण करनेकी अपेक्षा ऐसी परिस्थितिमें अहिंसावादी सुधारक अन्तर्मुख हो जाता है। वह परिस्थिति-विशेषमें फँसे हुए सारे लोगोंमें एक ही भगवानके दर्शन करता है और अपने विरोधियोंके तथा स्वयं अपने उद्धारके लिए तपाचरण करने लगता है। बुराईसे जूझते हुए वह उसमें फँसे सारे लोगोंका सहायक बनता है। उसकी विनम्रता उसमें शक्तिका संचार करती रहती है। यह विनम्रता ही हमारे शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक बलको विशृंखलित करनेकी बजाय सुगठित करती है। यों भौतिक दृष्टिसे इस विशाल विश्वमें हमारी कोई हस्ती नहीं है। “विश्वमें, ब्रह्माण्डमें, तारा, ग्रह, सूर्य इत्यादिमें हमारा स्थान कितना नगण्य है" (पृष्ठ ३६९)। अपनी इस असहाय स्थितिपर काबू पानेमें कोई प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति भी खुदको लाचार ही पाता है। ऐसे क्षणमें ही योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रत्येकके हृदयमें निवास करनेवाला वह आत्म-पुरुष—धीरेसे अन्तरमें बोल उठता है: यहाँ "केवल बुद्धिसे काम नहीं चलेगा। योग आवश्यक है, कर्मयोग आवश्यक है" (पृष्ठ ३५८)।

वह बुराई जो किसी समय हमें पागल बनाये हुए थी, एक नया अर्थ धारण कर लेती है। अब उसका रूप उतना असाध्य नहीं रह जाता। अब वह प्रयत्नसाध्य हो जाती है। उसका तो अस्तित्व ही इसीलिए था कि हम उसे सहारा दिये हुए थे। हम उस अवलम्बको हटा लेते हैं और वह ढह पड़ती है। वास्तवमें अपने गुण-दोषों सहित यह सारा विश्व स्वयं हममें उतना ही समाया है, जितने कि हम उसमें। "खालिस पाप दुनियामें टिक नहीं सकता। जबतक उसे किसी प्रकारके धर्मका सहारा नहीं मिलता, उसका निर्वाह नहीं हो सकता (पृष्ठ १०२)। "साम्राज्य दुष्टताका नहीं