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सम्पूर्णं गांधी वाङ्मय

चर्चामें रत व्यक्तिका उल्लेख किया। आगे एक ही श्लोकमें ऊपरके तीन श्लोकोंकी बात कही गई है:

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ ( २,४५ )

'वेद' तीन गुणवाले हैं। तू तीनों गुणोंसे शून्य हो जा। (किन्तु यह बात ठीक नहीं है। यदि यह तथ्य हो तो फिर 'वेद'को ईश्वरका वचन नहीं कह सकते। यहाँ अभिप्राय 'वेद' की उस व्याख्यासे है जो कर्मकाण्डी पण्डित करते हैं। यह केवल कर्म-काण्डात्मक ‘वेद’की बात हुई, इसलिए यह एकपक्षीय वर्णन है। जिस 'वेद' में नेति नेति कहा गया है, जिसमें सत्के सिवाय कुछ है ही नहीं, वह 'वेद' तो हमारे लिए पूज्य हैं। हम 'गीताजी' के आधारपर ही कह सकते हैं कि 'गीता' हमसे उस 'वेद'को माननेके लिए कहती है ।)

निर्द्वन्द्व हो जा अर्थात् सुःख-दुखसे परे हो जा। पाण्डवों और कौरवोंके इस युद्धके साथ तेरा कुछ लेना-देना ही नहीं है, ऐसा बन जा। नित्यसत्वस्थ अर्थात् सदा चित्तको स्थिर रखकर बैठा रह। निर्योगक्षेम अर्थात् प्राप्ति-संग्रह और रक्षणका विचार ही छोड़ दे। किन्तु और कुछ नहीं तो देहका संग्रह तो करना ही पड़ेगा, इसलिए उसके विषयमें तटस्थ हो जा। योग और क्षेमके विचारसे शून्य होकर आत्मवान हो जा। ऐसा समझ ले कि में देह नहीं हूँ, नाम-रूप नहीं हूँ, वरन् इनसे अतीत हूँ।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥(२,४६)

जो वस्तु एक छोटेसे हौजमें है वह एक बहुत बड़े सरोवरमें तो होती ही है। जो व्यक्ति ब्रह्मको जानता है, उसे तो सब कुछ प्राप्त हो चुकता है। सिद्धियाँ भी उसके पास हैं, क्योंकि ब्रह्मज्ञान सिद्धियोंकी परिसीमा है। गुण तो 'वेद' में उपस्थित हैं ही, किन्तु जो गुणोंसे भी ऊपर उठ गया, वह ब्रह्मज्ञानी हो गया। जिसे राज्यासन मिल गया है वह कोई फौजदारी या दीवानी विभागका छोटा-बड़ा अधिकारी होना नहीं चाहेगा। जिसने गंगोत्रीको पा लिया उसे गंगाजी तो मिल ही गई। गंगासे जो कुछ प्राप्त हो सकता है, वह सब गंगोत्रीमें प्राप्त ही है। फिर भी वह अलग-थलग और निर्द्वन्द्व बैठा रहता है। हुगलीके आगे गंगाका पानी मटमैला है, किन्तु ऋषिकेश अथवा हरद्वारके पास वह स्वच्छ है। जैसे-जैसे हम ऊपरकी स्थितिमें पहुँचते हैं, वैसे-वैसे अधिक स्वच्छता मिलती है।

(कुछ लोग इस श्लोकका दूसरा अर्थ करते हैं, किन्तु हम उसे छोड़ देंगे।) इतना कहकर भगवान कहते हैं कि मैं जो राजयोग तुझे बताना चाहता हूँ, वह यह है:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।(२,४७)

तेरा अधिकार कर्मके विषयमें ही है, फलके विषयमें नहीं। मालिक गुलामसे कहता है: तुझे कामसे काम है; खबरदार, अगर बगीचेके फलमें हाथ लगाया। तू