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'गीता-शिक्षण'

समाधान करनेके लिए कहते हैं और फलस्वरूप हमें पराधीन बना डालते हैं। जो काल्पनिक देवताओंकी काल्पनिक स्तुतियाँ करनेको कहते हैं और सभी देवताओंके देवताकी स्तुति से विमुख करते हैं। ऐसे व्यक्ति हमें रोज-रोज दलदलमें फँसाते चले जाते हैं। हमारे मनमें प्रायः तर्क-वितर्क हुआ करते हैं। इसे भी बहुशाखावाली बुद्धि कहेंगे। किसी छोटी बातको भी ले लें तो कह सकते हैं कि हमारी बुद्धि निश्चया- त्मक नहीं हुई है। किन्तु यदि हम एक निश्चय कर लें और हृदयपूर्वक उसपर दृढ़ रहें तो हमारी बुद्धि निश्चयात्मक हो जायेगी और यह तभी होगा जब हम तत्काल फलकी आशा रखे बिना काम करें। आज राजनीतिके क्षेत्रमें कहिए, चाहे समाज- सेवाके क्षेत्रमें कहिए, हम एक शाखापरसे दूसरी शाखापर कूदते फिरते हैं। हमने शुरू में गीली मिट्टीका दृष्टान्त लिया था और कहा था कि मिट्टीपर भी एकाग्र हो जायें तो आत्मदर्शन हो जाता है।

मुझसे एक सज्जनने पूछा कि आपको आत्मदर्शन क्यों नहीं हुआ। मैंने उनसे कहा कि साधन ही को मेरा साक्षात्कार समझ लीजिए। इस प्रश्नसे यही प्रकट होता है कि पूछनेवालाभाई मेरे वचनकी नम्रताको समझे बिना दूसरे अनेक लोगोंके पास भटकेगा। ऐसी ही स्थिति व्यासके कालमें थी। जो भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त हैं, जिनका मन अनेक प्रकारके वचनोंसे भ्रमित हो गया है, उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका, एक निश्चयवाली हो ही कैसे सकती है ? समाधिका अर्थ होता है ईश्वरके विषय में एक-ध्यान होना। इस समाधिमें व्यक्तिकी बुद्धि स्थिर कैसे हो सकती है। लाख मिले तो भी तृप्ति नहीं है। कल दस लाख पानेकी इच्छा करता है। आज जिसे लोग महात्मा कहते हैं इसलिए जो कल भी महात्मा कहलानेकी इच्छा करता है ऐसे व्यक्तिके चित्तमें अनन्त विकार उत्पन्न होते रहते हैं, रंग आते-जाते रहते हैं। उसका चित्त खादीके रंगकी तरह सफेद नहीं होता। उसका मन तो शौकीन स्त्रियोंकी तरह अपने चित्तको रंग-बिरंगी किनारदार साड़ी पहनानेका होता रहता है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर- परायण हो ही नहीं सकता। जिस व्यक्तिके भीतर नम्रता हो और 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस' के भक्तराजकी तरह जिसके मनमें श्रद्धा हो, उसीकी बुद्धि व्यवसायात्मिका कही जायेगी।

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बुधवार, २४ मार्च, १९२६

कल हमने देखा कि भोग और ऐश्वर्यकी इच्छा करनेवाला व्यक्ति व्यवसायात्मिका बुद्धिवाला व्यक्ति हो ही नहीं सकता; जो हजरत अलीकी तरह समाधिस्थ हो, वही हो सकता है। जिसका चित्त पूर्ण रूपसे निर्मल हो गया है, जिसका अन्तर विकसित हो गया है, जाग्रत हो गया है और जिसका हृदय दर्पणकी तरह स्वच्छ हो गया है, उसीके स्वच्छ अन्तरमें ईश्वरका साक्षात्कार होता है। इसमें से यदि कोई स्वर निक- लेगा तो वह रामनामका ही स्वर होगा। इस प्रकार श्रीकृष्ण भगवानने 'वेद' की