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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करने में भी न हिचकिचायें। यदि कोई ऐसा आग्रह करे कि वह स्वयं अपनी पूनियाँ मुझे लाकर देगा, तो वह पूनियोंकी चोरी भी कर सकता है। इसलिए अच्छे कामके प्रति भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। साधन उसी अवस्थामें शुद्ध रहेंगे और कर्म भी शुद्ध रहेगा।

आगे कहते हैं, सफलता और विफलताके विषयमें सम रहना चाहिए। इसलिए तू सारे काम कृष्णके नामपर कर। अपना सिर उनकी गोदमें रख दे। जो समत्व रखता है, कहा जा सकता है कि वह योगका पालन करता है। इसी बातको आगे समझाते हैं।

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥(२, ४९)

बुद्धियोगके बिना किया हुआ कर्म बहुत ही हानिकर होता है। तू बुद्धिकी शरण ले। बुद्धि अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि। इसके बाद तर्क-वितर्कमें पड़ना ही नहीं पड़ता है। फलकी इच्छा करनेवाला कृपण अर्थात् दयाका पात्र है।

[२७]

शुक्रवार, २६ मार्च, १९२६

जिसका कोई निश्चय है ही नहीं, उसका मन व्यभिचारी है। भर्तृहरिने व्यभिचारके अनेक प्रकारोंका वर्णन किया है।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥(२, ५०)

जो व्यक्ति बुद्धियुक्त है, निश्चयात्मक बुद्धिवाला है; बुद्धिमें ही लीन हो गया वह योगी है। वह अच्छे और बुरे कार्यका त्याग कर देता है; अर्थात् दोनोंके विषयमें तटस्थ रहता है। इसलिए तू योगी बन। कर्ममें कौशल ही योग है। अमुक काम करना चाहिए या नहीं, यदि यह जानना हो तो मनुष्यको योगीके पास जाना चाहिए। इसीलिए कहा है कि जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ श्री, विभूति इत्यादि सभी कुछ है।[१]

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥(२, ५१)

योगी पुरुष कर्ममें से उत्पन्न होनेवाले फलको छोड़ देता है और जन्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। जिसका देहके प्रति मोह मिट गया है, उसका मरण कैसे हो सकता है? उसे तो अनामय पद —अमरपद मिलता है।

  1. पत्र योगेश्वरः कृष्णो पत्र पार्थो धनुर्धरः।
    तत्र श्रीविजयो भूतिर्भुवा नीतिर्मतिर्मम॥ (१८, ७८)