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'गीता-शिक्षण'

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्यं तितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ (२, ५२)

जब तेरी बुद्धि मोहके दलदलको पार कर लेगी, तो सुनने योग्य अथवा सुने हुएके प्रति तुझे वैराग्य प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तू तटस्थ हो जायेगा।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ (२, ५३)

बहुत सुननेके कारण विपरीत अवस्थाको प्राप्त तेरी बुद्धि जब ईश्वरके ध्यानमें लीन हो जायेगी, तब तू योगको प्राप्त होगा, समाधिमें अचल हो जानेपर व्यक्ति प्रेममें मस्त हो जाता है और इस संसारको तुच्छ गिन सकता है। {c|[२८]}}

शनिवार, २७ मार्च, १९२६

अब अर्जुन पूछता है कि जो समाधिस्थ है, उसकी भाषा क्या है। भाषा अर्थात् निशानी। माता जो पोषण देती है, वह अलग है और 'गीता' जो पोषण देती है, वह अलग। गीता-माताके सामने माता मिथ्या है। जिस व्यक्तिने 'गीता'को प्रयाण- कालतक अपने हृदयमें अंकित कर रखा है उसकी मुक्ति निश्चित है। जिस बालकने गीता-माताकी आराधना की होगी, वह बालक ध्रुव अथवा सुधन्वा जैसा हो जायेगा। ये श्लोक समझकर आत्मसात् करनेकी दृष्टिसे कहे गये हैं।

हम 'स्थितप्रज्ञस्यका भाषा' वाले श्लोकसे लेकर दूसरे अध्यायके अन्ततक के श्लोक आश्रमकी सायंकालकी प्रार्थनामें पढ़ते हैं।

[२९]

रविवार, २८ मार्च, १९२६

भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तू मेरा हाथ है। हाथको गति देनेवाला मैं हूँ। कहते हैं कि सब इन्द्रियोंको यह वैसा ही है जैसा हम सुबहकी प्रार्थनाके श्लोकोंमें गति देनेवाला तू है। धैर्य रखकर, एकध्यान होकर काम करनेवाला कर्ममें कुशल योगी कहलाता है।

[ ३० ]

मंगलवार, ३० मार्च, १९२६

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥(२, ५५)

जो व्यक्ति मनमें आनेवाली सभी खराब कामनाओं — इच्छाओंको छोड़ देता है वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। खराब शब्द इसलिए जोड़ा कि यहाँ आश्रममें हम लोग रात-दिन काममें लगे रहते हैं। जो पंगु है उससे चलनेके लिए नहीं कहा जाता।

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