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'गीता-शिक्षण'

हूँ कि यह धर्म जागृतिकी तिथि है। सामान्यतया इसे लोग राजनीतिसे सम्बन्धित तारीख मानते हैं। हमने इस दिन उपवास रखा था; नदीमें स्नान करके देवदर्शन किये थे; मुसलमानोंने मसजिदोंमें प्रार्थना की थी; पारसियोंने अगियारीमें। इनमें सच्चे लोग कितने थे, यह कौन कह सकता है ? किन्तु उस समय तो सभी सच्चे लगते थे। वह सत्याग्रहका दिन था। शामको 'हिन्द स्वराज्य' बेचकर कानूनका सविनय भंग प्रारम्भ किया गया था। उस दिन तो लोग - हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सभी पागल हो गये थे। आज भी हमने चौबीस घंटोंका उपवास किया है। इसका हेतु समझ लेना चाहिए। इसका हेतु है अपनी आत्माकी जागृति । असत् में से सत्में जाना । अन्धकारमें से प्रकाशमें जाना । हमारी यह अभिलाषा कोई दूरकी अभिलाषा नहीं है, तात्कालिक अभिलाषा है । शान्ति और सत्यके प्रतीककी तरह हमने चरखेकी कल्पना की है। वह लकड़ीका बना हुआ ही क्यों न हो; किन्तु यदि हमने उसमें चिन्तामणिको कल्पना कर ली हो, तो वह चिन्तामणि है। जो इसे केवल चरखा मानता है, वह बुद्धिमान हो सकता है, किन्तु जो इसे चिन्तामणि मान रहा है वह अधिक बुद्धिमान है। जड़से- जड़ व्यक्ति भी यदि केवल मिट्टीके ढेलेमें ईश्वरकी कल्पना कर सकता है तो चरखेमें कितनी अधिक कल्पना नहीं की जा सकती। और अगर तब हम चरखेमें स्वराज्यकी कल्पना करते हैं, तो इसमें अजीब बात कौन-सी है। इस तरहकी कल्पना धर्म-विरोधी कल्पना नहीं है। ऐसा मानकर हम उपवास करें और चरखा चलायें । सारा हिन्दुस्तान सो जाये, तब भी सत्याग्रहाश्रम तो जागता रहेगा । और मैंने तो चरखे द्वारा स्वराज्य लेनेकी बात कही है। 'भगवद्गीता' में तो कहा है कि स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र सभी इसे पा सकते हैं। इस तरह यह एक ऐसा काम है, जिसे हम सब कर सकते हैं। शरीर हृष्ट-पुष्ट है अथवा नहीं है, जिसका मन अडिग है, वह इसे कर सकता है । इसलिए हम दृढ़ बन जायें और यदि हम अपनी इन्द्रियोंको मन डिगानेकी आज्ञा न दें, तो हम सत्याग्रहके लिए तैयार हो सकते हैं।

अब आजका श्लोक:

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।(२,६७)

विषयी व्यक्ति जहाँ-तहाँ भटकता है। उसे नित्य नई पोशाकोंकी जरूरत होती है। जो सूझता है, वही खाता है, पहनता ओढ़ता है। यदि इन विषय लोलुप इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय निरंकुश हो, भटकनेवाली हो और यदि इस एकमें भी मन लग जाये, तो यही एक इन्द्रिय मनुष्यकी बुद्धिका हरण कर लेती है। जिस तरह तूफान जहाजको समुद्र में उठाता-गिराता है, चट्टानपर पटक देता है या रेतमें ले जाकर डाल देता है, इसी तरह वह एक इन्द्रिय इस मनुष्यका नाश कर देती है। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ भटक गई हैं और जिसका मन उनमें से किसी एकके ही वश हो गया है, उस व्यक्तिको समाप्त मानना चाहिए। मोहसे विनाशकी जो परम्परा बताई गई है, मनके एक विषयमें लीन हो जानेपर भी आदमीका वही हाल हो जाता है।