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'गीता-शिक्षण'

समझ ही जाता है कि सदा पेट भरकर खायेंगे तो भक्तिमें कोई न कोई विघ्न अवश्य आयेगा। इसलिए जब जगत् छप्पन भोग करना चाहेगा, हमारा यह योगी अल्पाहार करेगा। किन्तु वह अपने इस गुणका प्रदर्शन नहीं करेगा। आज नरसिंह मेहताका जो भजन यहाँ गाया गया उसमें वैराग्य, ज्ञान, ध्यान सबकी खिल्ली उड़ाई गई है और गोपियोंके प्रेमको बहुत बड़ा कहा गया है। यह उलटी बात लगती है; किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रायः जगत् जिसे योगी कहता है, वह सचमुच योगी नहीं होता। जिसे वह चतुर्धा मुक्ति[१] कहता है, अथवा ज्ञान कहता है, वह भी वैसे नहीं हैं। यह सब तो जगत्को ठगनेकी बातें हैं। सम्भव है, जो ध्यानी है वह भोगी जैसा दिखता हो। आठों पहर ईश्वरमें लीन होते हुए भी वह व्यक्ति सामान्य मनुष्योंकी तरह व्यवहार करता हो, वह इस बातकी डोंडी पीटते हुए थोड़े ही निकलेगा कि मैं ध्यानमें डूबा हुआ हूँ। गोपियाँ प्रेममें नाचती रहती हैं, क्योंकि वे जगत् की निन्दासे नहीं डरतीं और उसका कारण यह है कि वे जानती हैं कि हमारा प्रेम शुद्ध है। मीराने कहा है कि मुझे जगतके इस कथनकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि मैंने अपना पति नहीं छोड़ा; बल्कि मैं तो यह जानना चाहती हूँ कि पति-भक्तिका रहस्य किस बातमें है। राजा गोपीचन्द स्वर्ण महलमें विहार कर रहा है, अंतर- फुलैल वगेरहमें महक रहा है, हँसते-मुसकाते अपने शरीरकी शोभा निहार रहा है और गवाक्षमें बैठी हुई मैनावतीकी आँखसे पानी टपक पड़ता है। आकाशमें एक भी बादल नहीं था, इसलिए जब पानीका यह बूंद गोपीचन्दके शरीरपर गिरता है, तब उसे आश्चर्य होता है और मैनावती समझाती है कि तुम्हारी यह काया नाशवान है, इसमें झुर्रियाँ पड़ जायेंगी, दाँत गिर जायेंगे, आँखोंका प्रकाश चला जायेगा और अगर तू इसी क्षण मर जाये तो क्या होगा? तेरी यह काया किस काममें आयेगी? मैंने तो अपना जन्म गँवा दिया, किन्तु तू संसार छोड़कर भाग जा। क्या माता ऐसी सलाह दे सकती है? किन्तु जगत्‌को जो वस्तु बहुत बड़ी लगती है, वह उस माताको तुच्छ लगी। क्योंकि उसे ज्ञान हो गया था। पृथ्वी प्रदक्षिणा करती है और चौबीस घंटेमें एकवार हमारा सिर नीचे और पाँव ऊपर हो जाते हैं। किन्तु पृथ्वी हमें सँभाले रहती है। इसलिए सिर नीचेकी ओर रहते हुए भी हम चल-फिर पाते हैं। जिस तरह मिश्रीकी डलीके ऊपर घूमती हुई चींटीको उसके लुढ़कते रहनेपर भी उसका अन्दाज नहीं होता, उसी तरह पृथ्वीके गोलेपर हम हैं। हमें इसका भी पता नहीं चलता कि पृथ्वी गोल है और घूमती ही रहती है। ज्ञानी और योगी ऐसी बातोंका रहस्य जानते हैं और कहते हैं कि यह झूठ बात है और वह भी झूठ बात है। जगत् जिसे सत्य समझता है, वह उसके लेखे मिथ्या है। जिसे जगत् अन्धेरा कहता है, उसे वह उजाला कहता है। योगीके अन्तरकी स्थिति जगत्की स्थितिसे अलग है। शरीरको आत्माकी कैद में रहना चाहिए। स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि वह जिस तरह चलाना चाहे, शरीर उस तरह चले।

  1. सालोक्य (भगवानका लोक), सामीप्य (भगवानकी निकटता), सारूप्य (भगवानका स्वरूप) और सायुज्य (भगवानसे मिलन)।