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१. 'श्रीमद् राजचन्द्र' की भूमिका

५ नवम्बर, १९२६

प्रस्तावना

श्री रेवाशंकर जगजीवनने,[१] जिन्हें में अपने बड़े भाईके समान मानता हूँ, जब श्रीमद् राजचन्द्रके[२] पत्रों और लेखोंकी इस आवृत्तिके[३] लिए प्रस्तावना लिखनेको कहा तब में उन्हें इनकार नहीं कर सका। इस प्रस्तावनामें मुझे क्या लिखना चाहिए, इसपर विचार करते हुए मुझे लगा कि यरवदा जेलमें[४] मैंने उनके संस्मरणोंके कुछ प्रकरण लिखे थे, उन्हें ही यहाँ दे दूं तो उससे दो अर्थ सिद्ध होंगे। एक तो यह कि जेलमें किया हुआ मेरा यह प्रयास है तो अधूरा किन्तु मैंने जो भी लिखा वह शुद्ध धर्मवृत्तिसे ही लिखा था, अतः मेरे जैसे मुमुक्षुओंको इसका लाभ मिलेगा और दूसरा यह कि श्रीमद्से अपरिचित लोगोंको उनका कुछ परिचय मिल जायेगा और इस प्रकार उनकी कतिपय रचनाओंको समझने में मदद भी मिलेगी।

ये प्रकरण हैं तो अधूरे और मैं उन्हें पूरा कर सकूंगा, ऐसा भी मुझे नहीं लगता क्योंकि अवकाश मिलनेपर भी मैंने जितना लिखा है उससे आगे बढ़नेकी मेरी इच्छा नहीं होती। इसलिए मैं ऐसा चाहता हूँ कि अन्तिम प्रकरण, जो कि अधूरा रह गया था उसमें कुछेक बातोंका समावेश कर पूरा करके दूँ।

इन प्रकरणोंमें एक विषयपर विचार नहीं हुआ है। उसे मैं पाठकोंके सम्मुख प्रस्तुत करना उचित समझता हूँ। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि श्रीमद् पच्चीसवें तीर्थंकर थे। कुछ मानते हैं कि उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया था। मुझे लगता है कि ये दोनों मान्यताएँ ठीक नहीं हैं। जो लोग ऐसा मानते हैं वे या तो श्रीमद्को अच्छी तरह जानते नहीं अथवा तीर्थंकरकी या मुक्त पुरुषकी उनकी व्याख्या कुछ भिन्न है। अपने प्रियतमके लिए भी हमें सत्यको हलका अथवा सस्ता नहीं करना चाहिए। मोक्ष अमूल्य वस्तु है। मोक्ष आत्माकी अन्तिम स्थिति है। मोक्ष ऐसी महँगी वस्तु है कि समुद्र के किनारे बैठ सींकसे एक-एक बूंद करके समुद्र उलीचनेके लिए मनुष्यको जितना प्रयत्न करना पड़ेगा और जितना धीरज रखना पड़ेगा, मोक्ष-सिद्धिके लिए उससे भी अधिक प्रयत्न और धीरजकी आवश्यकता है। इस मोक्षका सम्पूर्ण वर्णन करना असम्भव है। तीर्थंकरको मोक्षके पूर्वकी विभूतियाँ सहज ही प्राप्त होती हैं। देह रहते हुए जो मुक्त हो जाता है ऐसे पुरुषको रोगादि व्याधियाँ नहीं व्यापतीं।

  1. रेवाशंकर जगजीवन झवेरी।
  2. राजचन्द्र रावजीभाई मेहता, रायचन्द भाईके नामसे प्रसिद्ध, देखिए खण्ड १।
  3. द्वितीय आवृत्ति। यह निश्चय नहीं किया जा सकता कि प्रथम आवृत्तिका प्रकाशन कब हुआ था।
  4. गांधीजी जेलमें मार्च १९२२ से फरवरी १९२४ तक रहे थे।
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