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'गीता-शिक्षण'

और आचरणमें न उतारें तो वह ज्ञान हमारे किस कामका। इसलिए हमें तो यह चाहिए कि हम आसपासके लोगोंकी सेवा करें और घरेलू कामकाजोंमें अपनेसे बड़ोंकी मदद करें। बा को ऐसी जरूरत क्यों पड़नी चाहिए कि वह कुसुमको बुलवाये । रामचन्द्र तो यहाँ कुछ दिनोंके लिए मेहमानकी तरह आया है; रसोईघर आदि घोनेमें मददके विचारसे बा को उसे क्यों बुलवाना पड़े ? बा ने इन दिनों एकाशनका व्रत रखा है। उसे थोड़ी देर आराम करनेका अवकाश क्यों नहीं मिलता ? यदि तुम उसके किसी काममें हाथ नहीं बँटाते, तो ग्रामोफोनके जैसे हो ।

अनेक व कत्र नयनमने का द्भुतदर्शनम् ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।

सवश्च्यमय देवामानंते विश्वतोमुखम् ॥ (११, १०-११)

जिसके अनेक मुख हैं, अनेक आँखें हैं, जो अनेक अद्भुत दर्शनवाला है और जिसने अनेक दिव्य आभरण धारण किये हैं, जो अनेक दिव्य शस्त्र उठाये हुए है, दिव्य मालाओं और परिधानोंको पहने हुए है, दिव्य गन्धोंसे अनुलिप्त है, जो अत्यन्त आश्चर्यमय और अनन्त रूप है, विश्वकी सभी दिशाओंमें जो अभिमुख है, ईश्वरके ऐसे रूपको अर्जुनने देखा।

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (११, १२)

यदि हजार सूर्योका तेज एकसाथ ही आकाशमें व्याप्त हो जाये तो सम्भव है। कि वह इस आत्मा, विश्वरूप परमात्माके प्रकाशकी कुछ झाँकीका आभास दे सके।

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ (११, १३)

[अर्जुनने देखा, ] सारा संसार उस एक ही स्थानपर स्थित है और फिर भी वह अनेक रीतियोंसे विभक्त है। (वृक्ष और उसके पत्तोंकी तरह । वृक्षको विराट् स्वरूप समझो । मूल और पत्ते यों तो एक ही हैं, किन्तु मूल समस्त वृक्षको - जगत्को -- अपनेमें समाये हुए है और जो पत्ते हैं, वे मानो जगत्के भिन्न-भिन्न फैले हुए रूप हैं । )

अर्जुनने देवाधिदेवका स्वरूप इस तरह देखा ।

ततः स विस्मियाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः ।

प्रणम्य शिरसा देवं कृतांजलिरभाषत ।। (११, १४)

उसे देखकर अर्जुन आश्चर्यसे स्तब्ध हो गया। उसके शरीरमें रोमांच हो आया और वह भगवानके आगे सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर इस तरह कहने लगा।