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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

[ १४८ ]

गुरुवार, २ सितम्बर, १९२६
 

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ (११, ५)

हे पार्थ, तू मेरे सैकड़ों और हजारों अनन्त रूपोंको देख। ये रूप नानाविध, दिव्य, अनेक वर्ण और अनेक आकृतियोंवाले हैं।

पश्यादित्यान्वसन्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ।। (११, ६-७)

आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुत -- -मेरे इन सभी रूपोंको तू एक ही समय में देख । यहाँ एक ही स्थानपर एकत्र समस्त जगत्- चर और अचर -- सब कुछ देख ।

इस विराट् स्वरूपमें अच्छे-बुरे, हिन्दू-मुसलमान, आस्तिक-नास्तिक जाते हैं ।

इस सबके अतिरिक्त तू अन्य जो कुछ भी देखना चाहता हो, वह भी देख ।

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्

तू अपने इन चर्म-चक्षुओंसे मुझे नहीं देख सकेगा इसलिए मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ। इनके द्वारा तू मेरी ऐश्वर्यमयी शक्ति देख ।

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ।। (११, ९)

संजय कहते हैं, हे राजा धृतराष्ट्र, ऐसा कहकर योगेश्वर कृष्णने अर्जुनको अपना ऐश्वर्यशाली, परम रूप दिखाया ।

[ १४९ ]

शुक्रवार, ३ सितम्बर, १९२६
 

हमें 'गीता' का ज्ञान किसी किताबमें संग्रह करके नहीं रखना है, बल्कि अपने आचरण में उतारना है। महादेव और पूंजाभाई, जो-कुछ में बोलता हूँ, उसे लिख लेते हैं। यदि रिकार्ड करनेकी मशीनका प्रबन्ध किया होता तो वह अक्षरशः इस सबको लिख लेती। किन्तु क्या इससे ऐसा कहा जा सकता है कि ग्रामोफोनके उस रिकार्डने 'गीता' सीख लो । ग्रामोफोन तो जड़ है। इसी तरह यदि हम भी पुस्तकमें लिख रखें