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'गीता-शिक्षण'

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि

विहारशय्यासन भोजनेषु ।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं

तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ (११, ४२)

आपको अपना मित्र मानकर अविवेकपूर्वक यदि मैंने कुछ कह दिया हो आपकी महिमाको न समझकर मेरे मुँहसे कुछ निकल गया हो, प्रमाद अथवा अति प्रेमवश कुछ कह गया होऊँ अथवा हँसी-हँसीमें कभी मैंने आपका अपमान कर दिया हो, खेलते, सोते, बैठते अथवा खाते हुए, अकेले अथवा दूसरोंके सामने यदि मुझसे कोई अविनय हुई हो तो मुझे क्षमा करें।

पितासि लोकस्य चराचरस्य

त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो

लोकत्रयेऽप्यप्रतिम प्रभाव ॥ (११, ४३)

आप इस चराचर जगत्के पिता हैं, पूज्य हैं और श्रेष्ठ गुरु हैं। आपके समान इस विश्वमें कोई नहीं है, तब फिर इस त्रिलोकमें तो हो ही कैसे सकता है ? आपका प्रभाव अप्रतिम है।

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं

प्रसादये त्वामहमीशमीडयम् ।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः

प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् || (११, ४४)

आप प्रणम्य हैं, इसलिए अपने शरीरको आपके चरणोंमें झुककर स्तुति करने योग्य आपसे मैं यह विनय करता हूँ कि जिस तरह पिता पुत्रका, मित्र मित्रका, पति प्रिय स्त्रीका अपराध सहन करता है, उसी प्रकार आप भी मेरा अपराध सहन करें ।

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा

भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।

तदेव मे दर्शय देव रूपं

प्रसीद देवेश जगन्निवास || (११, ४५)

जैसा पहले कभी नहीं देखा, आपका वैसा रूप देखकर मुझे रोमांच हो आया है और मेरा मन भयसे व्याकुल हो उठा है। इसलिए हे देव, मुझे अपना पहलेका रूप दिखाओ । हे देवेश, हे जगन्निवास, आप प्रसन्न हों ।