त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य पर निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्तया ततं विश्वमनन्तरूप ।। (११, ३८)
आप आदिदेव हैं, पुराण पुरुष हैं, आप इस विश्वके परम आश्रयस्थान हैं। आप ज्ञाता हैं, ज्ञेय हैं, परमधाम आप ही हैं। हे अनन्त रूप, आप इस जगत्में व्याप्त हैं।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांक:
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ (११, ३९)
वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्र, प्रजापति, प्रपितामह आप ही हैं। मैं आपको हजारों बार नमस्कार करता हूँ, पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ ।
[ १५३ ]
नमः पुरस्तादथ पृष्ठ तस्ते
नमोऽस्तुते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ ( ११, ४०)
मद्रासमें एक भक्त महिला थी । वह भगवानकी तरफ पीठ करके पूजा किया करती थी। एक ज्ञानी उसे ताना मारने लगा । किन्तु उक्त महिलाने उत्तरमें यह श्लोक पढ़कर सुनाया और वह ज्ञानी हतप्रभ होकर रह गया । जब हरएक स्थलमें भगवान है, सभी दिशाओंमें उसकी आँख, कान, नाक इत्यादि हैं, तब अमुक दिशामें ही बैठना जरूरी क्यों हो ?
आपको सामनेसे, पीछेसे और चारों ओरसे मेरे नमस्कार हैं। हे अनन्त वीर्य- वान्, हे असीम पराक्रमी, सभी कुछ आप ही धारण किये हुए हैं। इसलिए आप ही सब-कुछ हैं। अर्थात् जो कुछ भी है वह सब-कुछ आप ही हैं और जहाँ आप नहीं हैं, वहाँ कुछ भी नहीं है ।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥