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गीता-शिक्षण'

शून्यका ध्यान करना बहुत कठिन वस्तु है। ईश्वरके प्रति एक भी गुणका आरोप करते ही अव्यक्तकी उपासना नहीं बचती। फिर भी निराकार, अचिन्त्य स्वरूप साकार- के उस पार है। यह तो हम सबको समझना ही पड़ेगा। भक्तिकी पराकाष्ठा इस बातमें है कि भक्त भगवान में लीन हो जाये और अन्तमें बच जाये केवल एक अद्वितीय, निराकार भगवान ही। किन्तु इस स्थितिकी प्राप्ति साकारके माध्यमसे सरलतापूर्वक हो जाती है, इसलिए सीधे निराकारको प्राप्त करनेका मार्ग कष्टसाध्य कहा गया है।

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।

भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (१२, ६-७)

किन्तु जो मनुष्य अपने सभी कामोंको मुझे समर्पित कर देता है, मेरे ही प्रति परायण रहता है और अनन्य योग-भक्तिपूर्वक मेरा ही ध्यान धरता हुआ मेरी उपा- सना करता है तथा जिसने अपना मन मुझमें ही लीन कर रखा है, मैं ऐसे व्यक्तिका इस मृत्युरूपी संसारसागरसे जल्दी ही उद्धार करता हूँ ।

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रविवार, १२ सितम्बर, १९२६
 

'क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम्' वाला श्लोक मेरे लिए बहुत अधिक प्रकाश देनेवाला साबित हुआ है क्योंकि उसमें अव्यक्तकी पूजाको कष्टसाध्य और अधिक क्लेशयुक्त कहा गया है। यह कारण बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई व्यक्ति वन गमन करे और ध्यान धरकर बैठ जाये तो वह मनुष्य ईश्वरके दर्शन पा सकता है। किन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी दुकानका मुनीम, कर्मचारी अथवा प्रबन्धक हो तो वह भी ईश्वरके दर्शन कर सकता है। उन दोनोंकी स्थिति एक-सी ही हो सकती है और इसलिए इन दोनोंको ही एक-सा परिणा प्राप्त हो सकता है।

हम लोग चरखेकी प्रवृत्तिको हाथमें लिये हुए हैं। यदि इसके प्रति हमारी साधना सच्ची हो तो वह व्यापक हुए बिना नहीं रह सकती । देहधारीको जो मार्ग अपनाना चाहिए, चरखेके प्रति हमारी यह श्रद्धा इसका एक उदाहरण है। यही भक्तिका मार्ग है, सगुणकी उपासना है। कारण, हम चरखेको देख पाते हैं और उसमें शक्तिके दर्शन करते हैं। हम चरखेमें कुछ गुणोंको आरोपित करते हैं और दूसरोंसे भी वैसा ही करनेको कहते हैं। पर यदि हम केवल चरखेकी ही उपासना करें तो वह अव्यक्त ब्रह्मकी उपासना करने-जैसी बात हो सकती है। यदि हम चरखेका प्रयोग किये बिना उसकी उपासना करें तो वह भी अव्यक्तकी उपासना हुई। किन्तु मेरी कल्पना तो यह है कि यदि कभी मौन-सेवनका समय आ जाये तब भी यह बात नहीं हुई कि हमने चरखेको त्याग दिया अथवा ब्रह्मजिज्ञासाको छोड़ दिया। वास्तवमें तो हम हिमालयके शिखर पर जाकर बैठ जायें तो वह भी चरखेके प्रति वैराग्य अथवा लोगोंका तिरस्कार करना