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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं कहलाया जा सकता। इसमें अव्यक्तकी भक्ति नहीं है। उससे कुछ लाभ भले ही हो जाये । क्रोधके वश होकर यदि कोई ब्रह्मचर्य-व्रत पाले अथवा व्यभिचार छोड़ दे तो उसका कल्याण तो होगा ही तथापि यह नहीं कह सकते कि वह उसने ज्ञानपूर्वक किया है। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति चरखेसे ऊबकर अथवा समाजसे ऊबकर चरखा अथवा समाजको छोड़कर भागे तो यह बात उसके लिए नहीं कही गई है।

किन्तु यदि किसी व्यक्तिको ऐसा लगे कि इस नाम और रूपके उस पार कोई अन्य वस्तु भी है और उसे उसके दर्शन करने चाहिए तथा वह उसके दर्शनोंके लिए निकल पड़े तो यह एक मार्ग हुआ । अव्यक्तकी यह भक्ति हृदयसे करनी हो तो भी इसमें कष्ट बहुत है। ब्रह्म सत्य है और सृष्टि मिथ्या है यह एक ऐसी बात है जो बुद्धिमें भी नहीं आती। तब फिर इसके अनुसार अमल करना तो कितनी कठिन बात है? कोई शरीरमें छुरा मारे और हमपर उसका प्रभाव न हो, यह तो तभी हो सकता है जब हमारा शरीर ही कवच हो जाये । शास्त्रोंमें ध्रुव और सुधन्वाकी बात है। इस तरहका शरीर धारण करना भी शरीरका त्याग करने जैसा हो सकता है। इस हदतक आदमी पहुँच जाये और अपनी आत्मामें रम जाये ऐसी स्थिति कष्टसाध्य है। एक करोड़ मनुष्योंमें से ९९,९९,९९९ तो चूक ही जायेंगे। उनका यह मोह कदापि भंग नहीं हो सकेगा। उन्हें फिरसे जन्म लेना पड़ेगा ।

कर्म-मार्ग सबसे सीधा मार्ग है। बुद्धिका मार्ग जबर्दस्त भ्रममें डालनेवाला मार्ग है। कमसे-कम भ्रमित करनेवाला मार्ग तो 'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति 'वाला है । ईसाई अथवा मुसलमान भी, हिन्दू तो कदापि नहीं, सगुण उपासनासे मुक्त नहीं हुए। मौलाना शिबलीने एक पुस्तक लिखी है, जिसमें इस बातपर विचार किया गया है कि ईश्वर शरीरी है अथवा नहीं । सर्वथा अव्यक्तकी पूजा करनेवाले हरएक व्यक्तिके भाग्यमें किसी-न-किसी व्यक्तिकी पूजा लिखी ही है। हम इस बातकी कल्पना बुद्धिसे कर सकते हैं कि देहके साथ आत्माका सम्बन्ध नहीं है । इसी देहमें मोक्ष प्राप्त हो सकता है, ऐसा कहनेका अर्थ यह हुआ कि इस देहके छूटनेके बाद फिर जन्म नहीं लेना पड़ेगा । देह-पातके बादकी अपनी स्थिति कौन कह सका है ? स्पिरिच्युअलिस्ट (Spiritualist) और थियोसफीमें विश्वास करनेवाले भूत-प्रेतादिकी जो बात करते हैं, मैं कहता हूँ कि वह ठीक नहीं है और मेरा अर्थ यह है कि कोई पूरी बात अभीतक नहीं कर सका है।

इस दृष्टिसे अर्जुनसे कहा गया कि यदि तू इस प्रपंचमें न पड़े तो अच्छा है। यह ‘बँधी मुट्ठी लाखकी' जैसी बात हुई । कृष्ण कहते हैं कि अरे भोले आदमी, क्या तू यह नहीं देख पाता कि मैंने भी देह धारण किया है । इसके बाद भी तू मुझसे पूछता है कि अव्यक्तकी उपासना ठीक है कि व्यक्त की ? इससे तो यह अच्छा है कि मैं जैसा कहूँ, तू यथाशक्ति वैसा करता जा । निर्वैर हो जा और प्राणि-मात्रके प्रति समभावसे आचरण कर । यदि तू यह बात समझ जायेगा तो कितने ही प्रपंचोंसे छूट जायेगा। हम सगुणकी उपासना करते हैं, इस कारण यदि कोई हमें मूर्तिपूजक कहे और निन्दा करे तो उसे वैसा करने दो। इसीलिए कहा है :

१. सम्भवतः लाइफ ऑफ द प्रॉफेटसे तात्पर्य है।