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'गीता-शिक्षण'

किया जाये।) रजस्को बढ़ाना हो तो सत्त्व और तमस्को दबाना, तथा तमोगुणको बढ़ाना हो, तो सत्त्व और रजस् दोनोंको समाप्त करना चाहिए।

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ (१४, ११)

इस देहमें जब सभी द्वार प्रकाशयुक्त और ज्ञानयुक्त हो जाये तब समझना चाहिए कि सत्त्वगुणकी वृद्धि हुई है।

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ । (१४, १२)

जब रजोगुण बढ़ते है तब लोभ, प्रवृत्ति कर्मोका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा उत्पन्न होते हैं ।

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन । (१४, १३)

जब तमोगुणकी वृद्धि होती है तब अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं ।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ (१४, १४)

सत्त्वकी विकसित अवस्थामें जब देहधारी मरण प्राप्त करता है तो वह उत्तम ज्ञानियोंके निर्मल लोकोंमें जाता है।

अर्थात् ऐसे व्यक्तिकी सद्गति होती है। मरणकालमें तरह-तरहकी दवाइयोंका आग्रह किये जानेपर भी वह 'ना' ही कहता है और कहता है कि मेरे लिए तो केवल गंगाजल ही पर्याप्त है। जो ऐसा कहकर शान्ति धारण कर चुका हो वह सात्त्विक है।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते ।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ (१४, १५)

यदि मरणकालमें रजस्की प्रधानता हो तो व्यक्ति कर्मियोंके लोकमें जाता है और तमस् प्रधान अवस्थामें मरण प्राप्त करनेवाला मूढ़ योनिमें जन्म लेता है । कर्मियोंका लोक अर्थात् मनुष्य-लोक और मूढ़ योनि अर्थात् पशु इत्यादि लोक ।

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् । (१४, १६)

सुकृत कर्मोंका फल सात्त्विक और निर्मल है। मनुष्यकी राजस् प्रवृत्तिका फल दुःख है और तामसिक प्रवृत्तिका फल अज्ञान है।