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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।

सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ॥ (१४, ६)

इनमें निर्मल होनेके कारण सत्त्वगुण प्रकाशमय और अनामय है । वह बाँधता तो अवश्य है किन्तु वह हमें ज्ञान और सुखके बन्धनोंमें बाँधता है ।

जो व्यक्ति सात्त्विक आहार, विहार और विचारयुक्त है वह निरोगी है । केवल आहार सात्त्विक रखे और आचरण तथा विचार सात्त्विक न हों तो वह रोगी कहलायेगा ।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम् ।

तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ।। ( १४, ७)

रजस् रागात्मक है। तू उसे ऐसा जान कि उसकी उत्पत्ति रागमें से है अथवा वह रागको उत्पन्न करनेवाला है । यह तृष्णासे उत्पन्न होता है । यह देही अर्थात् जीवा- त्माको कर्मोके बन्धनमें बाँधता है ।

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।। (१४, ८)

तमस् अज्ञानसे उत्पन्न होता है । वह सभी देहधारियोंको मोहमें डाल देता है और प्रमाद, आलस्य तथा निद्राके द्वारा देहीको बाँधता है ।

न करने योग्य अनेक प्रकारकी इच्छाएँ ही प्रमाद हैं । आलस्य प्रमादका और भी खराब स्वरूप है। निद्रा उससे भी आगेकी चीज है और एक अघोरावस्था है । जो व्यक्ति समाधिस्थ है वह सदा ही जाग्रत है और उसे लेटने या आलस्य करनेकी आवश्यकता नहीं होती । अहदी तो आग लग जाये तो भी हाथपर-हाथ धरे बैठा रहे । तमस्में जिस बातकी ओर इशारा किया गया है, वह ऐसी ही स्थितिकी ओर है ।

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बुधवार, २९ सितम्बर, १९२६
 

सत्त्वं सुख संजयति रजः कर्मणि भारत ।

ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ (१४, ९)

सत्त्वका परिणाम सुखके रूपमें और रजस्का परिणाम कर्मके रूपमें प्रतिफलित होता है । ('गीताजी' में जिस कर्मकी व्याख्या की गई है, यहाँ कर्म शब्दका वह अर्थ नहीं लेना चाहिए । यहाँ इसका अर्थ है प्रवृत्ति; प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में ही लगे रहने वाले- का कर्म) । तमस्का परिणाम ज्ञानको आच्छादित करके प्रमादके रूपमें प्रतिफलित होता है ।

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।

रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।। (१४, १०)

रजस् और तमस्को अपसारित करके व्यक्ति सत्त्व उत्पन्न कर सकता है। (ये तीनों वस्तुएँ हमारे भीतर हैं। जिसका विकास करना हो, उसका विशिष्ट सेवन