तेजस्वी पुरुषसे अपनी बुद्धिको स्वच्छ करने, सात्विक करने आदिकी प्रार्थना करते हैं। इसके अतिरिक्त हम यह भी कहते हैं कि 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अर्थात् हम ऐसी आकांक्षा करते हैं कि तू हमें मोहसे प्रकाशमें, तमस्से ज्योतिमें ले जा । तब फिर इस श्लोकमें जो कुछ कहा गया है, वह क्यों कहा गया ? यदि हम आश्रममें रहते हुए ऐसे विकासकी इच्छा न करें तो पुरुषार्थ-भ्रष्ट हो जायेंगे। विद्यार्थीको तो प्रातःकाल जल्दी उठकर ऐसी प्रार्थना करनेकी बात सीखनी ही है। हमें आँसू बहाते हुए यह विनती करनी ही चाहिए कि हे प्रभु, हमें कौरव-रूपी घोर निद्राकी सेनासे बचा।
तब फिर 'गीताजी' में यह क्या कहा गया है ? निद्रा बढ़े तो भी हम कोई इच्छा न करें ? क्या हम उससे मुक्त होनेकी इच्छा भी न करें ? क्या हम यही कहें कि हमारी कोई इच्छा नहीं है। हमारे लिए तो तीनों अवस्थाएँ एक ही जैसी हैं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा सोचने लगे तब तो समझिए कि सब-कुछ समाप्त ही हो गया । या तो हमें ऐसा मानना चाहिए कि यह श्लोक क्षेपक है अथवा फिर ऐसा मानना चाहिए कि यह श्लोक 'भगवद्गीता' की कुंजी है। जिस तरह आरम्भमें अर्जुनके 'मारूँ अथवा न मारूँ' ऐसा न पूछकर बल्कि 'स्वजनों' को मारूँ अथवा न मारूँ ऐसा पूछनेपर भगवान यह कहते हैं कि तू 'स्व' और 'पर' का भेद किसलिए करता है । तेरा तो यह कर्त्तव्य है कि तू निष्पक्ष बुद्धिसे मारनेका काम कर । उसी प्रकार अर्जुनने भगवानसे यह नहीं पूछा कि इन तीनों गुणोंमें सर्वश्रेष्ठ गुण कौन-सा है। अर्जुन तो जान गया है कि आखिरकार तीनों गुणोंसे उत्तीर्ण होना है। गुणयुक्त व्यक्तिको पहचाना जा सकता है। इस जगत्में उक्त तीनों वर्गोंको पहचानने में कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती । पर प्रश्न यह है कि क्या जगत्में कोई त्रिगुणातीत भी हो सकता है? क्या कोई ऐसा भी है जो इस त्रिगुणात्मक मायासे अतीत हो चुका है ? ऐसे समय भग- वान उक्त प्रश्नका उत्तर देते हैं। यहाँ दूसरा और क्या उत्तर दिया जा सकता है ? त्रिगुणातीत तो उत्तम, मध्यम और अधम इन तीनों स्थितियोंसे मोहित नहीं होता। इन तीनों गुणोंके परिणाम उसमें दिखाई नहीं देते। ऐसा व्यक्ति अलौकिक स्थितिका भोक्ता होता है। किन्तु यह एक बड़ा विषय है, इसलिए अधिक विचार कल करेंगे।
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कल एक विचार किया जा रहा था । प्रकाश, प्रवृत्ति अथवा मोह – ये तीनों वस्तुएँ आयें अथवा जायें, जो व्यक्ति उनमें एक भी वस्तुसे दुःख नहीं पाता, उसके विषयमें हमने यह देखा कि ऐसा व्यक्ति हम संसारमें नहीं देख पाते। जिसे हम बुरी वस्तु मानते हैं. -- आलस्य, जड़ता अथवा अतिप्रवृत्ति, हमें ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो इनसे बचना न चाहता हो और जो शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति न करना चाहता हो; बल्कि हम तो इस स्थितिको प्राप्त करनेकी प्रार्थना करते हैं ।