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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'जिज्ञासु' शब्द भी 'ज्ञानकी इच्छा' से निकला हुआ शब्द है और जबतक यह ज्ञानेच्छा बढ़ती रहती है तबतक हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए कि वह बढ़ती चली जाये । अर्थात् हमें इस श्लोकके फलस्वरूप अपने कर्त्तव्यके विषयमें और अधिक उत्सुक हो जाना चाहिए। हमें तो समस्त जगत्के दुःख नाशके लिए प्रयत्न करना है।

सामान्य नियम यही हैं कि किसी लेखकके लेखके किसी एक ही भागको न देखें, बल्कि हम उसके सर्वांशको देखें और फिर उसका अर्थ समझें ।

अब देखें कि यह श्लोक किसके लिए है ? गुणातीतके लिए है। इसमें गुणातीतके लक्षण दिये गये हैं। गुणातीत हमें ऐसा ही लगेगा। हम नहीं जानते कि वह क्या करता है। सूर्यके विषयमें हम कहते हैं कि वह जलती हुई आग है, किन्तु वैज्ञानिक कहते हैं कि सूर्य एक काली स्याह चीज है । एक अंग्रेजी कविने कहा है कि दुनियामें जो वस्तु जैसी है वह हमें वैसी ही नहीं दिखती। शंकरका मायावाद भी यही कहता है । अर्थात् वह कहता है कि वस्तुएँ जैसी हैं उनका रूप हमें वैसा ही दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसी वे दिखती हैं, वैसी वे नहीं हैं। क्योंकि हमें सारी वस्तुएँ अपनी तरंगोंके माध्यमसे दिखाई देती हैं ।

यह तो निश्चित ही है कि हम इन्द्र-धनुषका जो रूप देखते हैं वह वैसा रूप- वान नहीं है। वह तो हमें वैसा दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए कहा है कि यह जगत् जलकी लहरें या इन्द्रका धनुष है।

हम तिरंगे जगत्‌में रहते हुए त्रिगुणातीतकी पहचान किस तरह करें ? यदि जगत् उसे बुरा कहे अथवा ज्ञानवान कहे अथवा प्रमादी माने तो वह उससे दुखित नहीं होगा। यदि जगत् हमें कोरा आन्दोलनकारी माने तो इससे क्या होता है ?

इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति त्रिगुणातीत हो गया है, जगत् देखेगा कि वह प्रवृत्तियोंसे खुश नहीं होता और प्रमाद आदिसे दुःखी नहीं होता। वह सुख और दुःखके द्वन्द्वसे छूट गया है। द्वन्द्वातीत हो गया है। ऐसा व्यक्ति हमें अछूता और अलिप्त दिखाई देना चाहिए। ऐसा व्यक्ति [ वास्तवमें ] केवल निरभिमानी है।

इस तरह मध्यकी स्थितिसे भी परे एक अलग स्थिति होती है। 'भगवद्गीता' ने इस बातपर अधिकसे-अधिक जोर दिया है। उसने तो इतना ही कहा है कि तुम्हारे भीतर जो 'मैं' स्थित है उसे तुम निकाल फेंको। हम कहते हैं, 'नेति, नेति ।' तू मुझे अमुक रूपमें देखता है। पर सच कहें तो मैं 'हाँ' हूँ और तू 'ना' है । गुणातीत व्यक्ति जगत्को शून्य-जैसा दिखाई देना चाहिए। पत्थरकी तरह जड़ रूपमें दिखाई देना चाहिए । अर्थात् उसके भीतरका अहंकार निकल गया है। संसारने रामको साक्षात् ईश्वरके रूपमें प्रतिष्ठित कर दिया, क्योंकि जगत् उसे उसी रूपमें देख सकता है । शंकरने पार्वतीसे कहा कि तुम ऐसा क्यों मानती हो कि रामको विरहका दुःख हुआ। शंकरको इस बातसे कष्ट हुआ कि पार्वतीने रामके प्रति ऐसे मोहकी कल्पना की, जबकि राम सारा अहंकार छोड़कर शून्यवत् काम कर रहे हैं।