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'गीता-शिक्षण'

हमें पूरी तरह चुका देना चाहिए। हरएक व्यापारी अपने खाते में सवा रुपया तो जमा करता ही है । यह सवा रुपया कोई-न-कोई शुभ निश्चय करके जमा कर सकना चाहिए। 'गीताजी' को यदि नियमानुकूल पढ़ा हो तो कर्त्तव्य समझमें आ जाता है ।

'गीताजी' में कहा गया कर्म इच्छापूर्वक किया गया कर्म है। कर्म एक ऐसी वस्तु है जिसके बिना व्यक्ति क्षण-भर भी जी नहीं सकता। इसलिए कर्मकी एक अन्य व्याख्या भी है । कर्म देह है। जबतक देह है और जीव उससे सम्बन्धित है, तबतक वह प्रवृत्तिमय है । कर्मका अर्थ हिंसा भी है । इसलिए कर्म-मात्रमें से अर्थात् देह-मात्रमें से निकल जाना ही मोक्ष हुआ । इस हिंसामय जगत् में से देहातीत अवस्था प्राप्त करनी है । कर्ममय इस जगत् में से अकर्ममय होना है। 'गीताजी' ने यह बताया है । इसपर फिर विचार करेंगे ।

[ ३ ]

शनिवार, ६ नवम्बर, १९२६ (कार्तिक सुदी १ )
 

आँख बन्द करके मुँहसे बोलते चले जायें, तो उसमें चित्तको जो शान्ति और आनन्द मिलता है वह अधिक है; उसीको पुस्तकसे पढ़कर सुना जानेमें अपेक्षाकृत कम आनन्द है ।

आज परिवा (वर्षका पहला दिन ) है। आप लोग जो कुछ भी शुभ निश्चय करके आये हों, वह फले। जिसने कोई भी निश्चय न किया हो वह इतना निश्चय करे कि उसे सच्चा तो रहना ही है। सच्चे न रहें तो जितनी चमक-दमक बनाई होगी, वह ऊपरी ही रहेगी; ऊपर-ऊपर मुलम्मा और भीतर कुधातु । कोई भी वस्तु सत्यके बिना शोभित नहीं हो सकती। इसलिए सबको यह निश्चय कर लेना है कि हम जैसे होंगे वैसा ही अपनेको प्रकट करेंगे, अपनेको जैसाका तैसा प्रकट करनेमें जो आनन्द है, वह शृंगार करनेमें, रूप दिखानेमें नहीं है । तिरछी टोपी अथवा अमुक रीतिसे साड़ी पहनने अथवा केश सँवारनेमें असत्य है । जो मनुष्य तरह-तरहके वेश करता है, और जैसा नहीं है वैसा दिखनेकी इच्छा करता है, वह व्यक्ति मिथ्याका पाठ पढ़ना शुरू कर देता है। हम महल तो सचकी नींवपर ही उठा सकेंगे ।

तीसरा अध्याय विशेष विचार करने योग्य है । हमने कल देखा कि कर्म अर्थात् देह, और कर्म अर्थात् हिंसा । मैंने कहा था कि इस बातको कल और गहराईसे सोचेंगे । इस अध्यायमें कहा गया है कि यज्ञ करना चाहिए। परमार्थके लिए किया गया काम यज्ञ है, किन्तु आगे यह बताया गया कि कर्म मात्र सदोष है । क्योंकि कर्म-मात्रमें थोड़ी- बहुत हिंसा रहती ही है । किन्तु यज्ञके अर्थ की गई हिंसा हिंसा नहीं है । यज्ञका अर्थ वह यज्ञ नहीं जिसमें पशुओंकी बलि दी जाती है। किसी समय इसे यज्ञ मानते थे, किन्तु आज ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि वह यज्ञ नहीं है । किन्तु कर्म-मात्रमें हिंसा है इसलिए मैंने हिंसाके दो विभाग किये। जहाँ दुःख देनेका इरादा है, वह हिंसा है और यदि दुःख देनेका इरादा नहीं है तो वह केवल वध करनेकी क्रिया है । जीवहत्या