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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हम 'गीता 'से क्या सार निकालें। मैं आज आपके सामने केवल एक ही विचार रखूंगा। 'गीता' कर्म-प्रधान हो, ऐसा नहीं है। ज्ञान-प्रधान हो, यह भी नहीं है और भक्ति-प्रधान हो सो भी नहीं है। यह सभी-कुछ इसमें है। जैसे वायुमें सबसे उपयोगी तत्त्व है ऑक्सीजन; किन्तु केवल उसीसे काम नहीं चलता, अन्य तत्त्व भी उतने ही जरूरी हैं। इसी प्रकार 'गीताजी' में भी जो-जो वस्तुएँ आई हैं वे सब आवश्यक हैं। कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों जरूरी हैं और अपने-अपने स्थानोंपर ये सभी चीजें प्रधान भी हो जाती हैं। भक्तिके बिना कर्म नहीं फलता और इसी तरह ज्ञानके बिना भक्ति निष्फल जाती है। इसलिए कहीं-कहीं भक्ति अथवा ज्ञानको कर्मका साधन बताया गया है । तथापि इसमें ऐसा भी इंगित किया गया है कि इन तीनों वस्तुओं- के बिना भी काम [ नहीं ] चल सकता है। ज्ञान सरलताके साथ समझमें नहीं आता, भक्ति' करना भी आसान नहीं है, किन्तु हम इन दोनोंकी अपेक्षा कर्मको अधिक सरलतासे समझ सकते हैं। मूर्तिका शृंगार करना, राम-नाम जपना ये सब कर्म हैं; प्रवृत्ति- मात्र कर्म है, कर्मका अर्थ है देह । कोई भी विचार जब देह धारण करता है, कोई आकार लेता है, तो वह कर्म हो जाता है। देह दृश्य पदार्थ है। जिस हदतक देहको देखा जा सकता है, उसी अंशतक कर्मको देखा जा सकता है। अर्थात् कर्मके बिना हम चल ही नहीं सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि 'गीताजी' में कर्मपर जोर दिया गया है। किन्तु यह भक्ति और ज्ञानके विना पंगु है। मान लीजिए कि हम नौकामें बैठ गये। किन्तु इसे गति कौन देगा ? इसे चलायेगा कौन ? हम नौकाको देखकर प्रसन्न हो जाते हैं और श्रद्धाके साथ उसमें बैठ जाते हैं। इसी तरह कर्म भी आवश्यक है किन्तु हम अपनी मंजिलतक तभी पहुँचेंगे जब कोई समझदार चलानेवाला उसे चलायेगा । कर्म-संन्यासकी बात निरर्थक है । कर्म तो संन्यासीका भी नहीं छूटता। किन्तु यह बात बादमें आती है।

'गीता' का कर्म जोर-जबरदस्तीसे किया गया कर्म नहीं है। उसकी पृष्ठभूमिमें कुछ-न-कुछ ज्ञान तो होना ही चाहिए ।

[२]

शुक्रवार , (दिवाली) ५ नवम्बर, १९२६
 

अहिंसाके मार्गपर चलते-चलते हमें चरखा मिला, ब्रह्मचर्य मिला। नदी [ साबर- मती ] के उस पारकी भूमि भोगभूमि है और [ इस पारकी ] यह भूमि कर्म-भूमि है। हमें यहाँ त्यागके धर्मका पालन करना है। जिस त्यागमें आनन्दका अनुभव न हो, वह त्याग त्याग ही नहीं है। हम आनन्दके बिना जीवित नहीं रह सकते । दिवाली साबरमतीके उस पार जिस ढंगसे मनाई जाती है, हमारा उससे कुछ अलग ढंगसे उसे मनाना शोभा देता है। आजके दिन हमें अपने कामका सिंहावलोकन करना चाहिए। हमारा हिसाब-किताब हमारे हृदयमें लिखा हुआ है। हमपर जो ऋण है उसे

१. साधन-सूत्रमें 'नहीं' छूट गया जान पड़ता है।

२. साधन-सूत्र में 'ज्ञान' है, स्पष्ट हो 'भक्ति होना चाहिए।

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