पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५१
'गीता-शिक्षण'

कर्म बच जायेगा वह स्वयं उसे नहीं करेगा, ईश्वर करेगा। यदि में श्वासोच्छ्वासके लिए भी उत्तरदायी नहीं हूँ, तो फिर जो कर्म में दूसरेकी इच्छासे कर रहा हूँ, उसे स्वयं नहीं कर रहा हूँ। ऐसा कर्त्ता अहिंसक है। इससे अधिक अहिंसक देहरूपमें रहते हुए हम इस संसारमें ही नहीं हो सकते। इसलिए तीसरे अध्यायमें हमने देखा कि जो कर्म यज्ञार्थ किया जाता है, वह बन्धनकारक नहीं होता । यज्ञार्थ किया गया कर्म अर्थात् परमार्थ किया गया कर्म । हम परमार्थ कर्म करें अर्थात् अपनेको ईश्वरकी सेनामें भरती करा दें। अपना तन, मन, धन, सब-कुछ उसको अर्पित कर दें । मैंने वैलेस नामके एक प्रोटेस्टेंटकी पुस्तक पढ़ी। वैलेसने यह अनुभव किया था कि लोगोंको ईसाई बनानेसे कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए उसने भारतीयोंके साथ घुल-मिलकर रहना तय किया । उसे हिन्दुस्तानके धर्मोके प्रति प्रेम हो गया, किन्तु वह ईसाको नहीं भूल पाया। बादमें उसने रोमन कैथोलिक धर्मकी बात सोची और उसके मनमें यह विचार आया कि मैं स्वयं कुछ नहीं हूँ, सब-कुछ चर्च ही है । अर्थात् उसने पार्थिवेश्वर चिन्तामणिका निर्माण किया, अपने मनकी एक मूर्ति बना ली और निश्चित किया कि इसीके वशमें रहना चाहिए। गुरु-परम्परामें उसने सारे समाजको मान लिया । मुझे यह कल्पना ठीक लगी है। यदि पोप विषयी हो तो समाजमें विकृति पैदा हो ही जाती है । किन्तु यदि अनुयायी व्यक्ति ऐसा निश्चय कर ले कि मुझे स्वयं तो कुछ भी नहीं करना है, जो-कुछ पोप कहेगा वही करना है तो अनुयायीका तो भला ही होगा । प्रोटेस्टेंट कहता है कि जो अन्तरात्मा कहे वैसा करना चाहिए। इसने अन्तरात्माको बाहर स्थापित करके अपनेको पोपके हाथमें सौंप दिया। अन्तरात्माको भी छोड़ देना एक बड़ा खयाल है। एक कथा कही गई है कि किसी साधकको किसी हिन्दू [ गुरु ] ने बताया कि रामका नाम लेना अच्छा और मुसलमानने बताया कि खुदाका नाम लिया कर । वह एक बार रामका नाम लेता था और दूसरी बार खुदाका । उसने एक बार रामका नाम लेनेवालेको तरते हुए भी देखा । इसलिए वह [ दुगुने लाभकी आशासे ] खुदाराम कहने लगा । किन्तु अवसर आनेपर वह पानीमें डूबने लगा । तब ईश्वरने कहा : 'हे भाई, मैं तो खुदा भी हूँ और राम भी हूँ।' इस साधकको अनन्यभक्त बनना था। जो तन, मनसे किसीको पूजता है, वह अन्तरात्माको ही पूजता है। भगवानके वश होकर चलनेमें ही, शून्यवत् होकर रहने में ही सब कुछ सरल हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सब कर्मोका त्याग कर चुका है । एक भक्त स्त्री [अनन्य भावसे ] देवालयमें जाती है, दूसरी महिलाएँ जो वहाँ जाती हैं भटकी हुई हैं। किन्तु जो अनन्यभावसे जाती है, वह तर जाती है। रामनामका मन्त्र देनेवाला नहीं तरा, किन्तु जिसने श्रद्धापूर्वक रामका नाम लिया, वह शिष्य तर गया । उक्त स्त्री दूसरोंके भटके हुए पनका दर्शन नहीं करती, वह तो प्रभुका ही दर्शन करती है। वह अकेली तर गई, दूसरी डूब गई । इसी तरह जो आदमी सारे कर्मोंका मानसिक त्याग कर देता है, उसके लिए कर्म शेष नहीं रहता। जो काम शेष रह जाये, उसको वह दूसरेके इशारेपर करता है, इसलिए उसके लिए

१. यहाँ साधन-सूत्रमें वाक्थ स्पष्ट नहीं है।