पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उत्तरदायी नहीं। वह खाता है, सो विवश होकर । श्वास लेनेकी क्रिया भी विवश होकर करता है। कर्म मात्रका मानसिक त्याग करते ही कितनी बड़ी व्यवस्था अपने- आप हो जाती है । हिंसा और अहिंसा अथवा बन्धन और मोक्ष क्या है, इसका कल विचार करेंगे ।

[५]

मंगलवार, ९ नवम्बर, १९२६
 

व्यक्ति अकर्मी तो तभी हो सकता है, जब वह देहको बिलकुल छोड़ दे। देहकी वासना भी छोड़नी पड़ती है । यह वासना न जाये, तो देहपातके बाद भी अनेक योनियोंमें से गुजरना पड़ेगा । देहकी वासनाका अर्थ है देहाध्यास । संसार सागर है। हम इसमें गोता खाते ही रहेंगे। इसमें से हमें यह सूक्ष्म ज्ञान हो जाना चाहिए कि सुख सुख नहीं है बल्कि सुखका आभास है और दुःख भी दुःख नहीं है बल्कि दुःखका आभास है । यदि व्यक्तिने मानसिक त्याग कर दिया हो, तो इसमें अहंता, ममता, नहीं बचती। इसलिए यज्ञार्थ और परोपकारार्थ कर्म करनेकी बात कही गई है; यज्ञार्थ किया गया कर्म अहिंसा है, किन्तु पारमार्थिक कर्म करने के लिए दो बातें होनी चाहिए। एक तो यह मानसिक वृत्ति कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है और दूसरे वास्तविक रूपसे उसके द्वारा कोई स्वार्थ साधन न करना, बल्कि जगत्का भला और परोपकार करना । यदि इन दोनों शर्तोंका पालन हो जाये तो भयंकरसे भयंकर काम भी अहिंसा है, ऐसा हम कह सकते हैं। हम तो हिंसापर अहिंसाका आरोपण ही कर सकते हैं, किन्तु यह तभी होगा जब हमारा काम परोपकारार्थ किया गया हो । यदि कोई व्यक्ति खाने-पीने इत्यादिकी बातमें भी तटस्थताके साथ उन्हें करनेका दावा करता हो तो वह रागमुक्त हो जाता है। जबतक हम देहके प्रति आसक्त हैं, तबतक वासना है। हम किसी धागेको तटस्थतापूर्वक पकड़कर नहीं रख सकते । स्वेच्छा तो उसमें होती है। साधकने अपना मन [ फलकी ओरसे ] अधिकसे-अधिक विलग कर लिया हो, तो वह देहातीत अथवा विदेहकी स्थितिको प्राप्त हो जाता है। किन्तु मैं तो हिंसा और अहिंसा, देह और देहातीतकी चर्चा कर रहा हूँ । यदि देह मिथ्या है, तो उसका उपयोग परोपकारके लिए करो, उसे खुदाकी इबादतके लिए काममें लाओ। जिन लोगोंने ऐसा कहा है वे अन्धे नहीं थे, वे अनुभव कर चुके थे; किन्तु हम इसे समझ नहीं सके। देहाध्यासको छोड़ना एक बड़ी कठिन बात है। कोई कह सकता है कि इतनी कठिन बात तुम बच्चोंको किसलिए समझाते हो ? मैं कहता हूँ कि यह बात बचपनमें ही समझी जा सकती है, दाँत गिर जानेके बाद नहीं। जवानी और बुढ़ापेमें कोई अन्तर नहीं है, ऐसा एक इतिहासकारने कहा है। जवानीमें भोग करनेकी इच्छा और शक्ति होती है। बुढ़ापेमें शक्ति नहीं होती इसलिए भोगनेकी इच्छा और बढ़ जाती है। जैसा मैनावतीने गोपीचन्दको समझाया यदि बच्चोंको वैसा न समझाया जाये तो परिणाम दुःखदायक होगा। मैं तो यहांतक कहता हूँ कि बूढ़े जवानोंके मुकाबलेमें बिलकुल बेकाम हैं। मैं एक राजाके बारेमें जानता हूँ जो घिरा