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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं, परमार्थके लिए। जो काम हम करते हैं, भक्त भी सम्भव है हूबहू वही काम करता हो, किन्तु उसमें बुद्धि बिलकुल दूसरी है। उसके बाद भगवान यह बताते हैं कि कर्म किस तरह किया जाना चाहिए और यह बता चुकनेके बाद इसका रहस्य बतलाते हैं। धीरे-धीरे देहभाव क्षीण होता जाता है, आत्मा दिनोंदिन विकसित होती जाती है, जाग्रत् होती है और [ व्यक्ति ] उसके दिव्य रूपका दर्शन करता है।

[ १० ]

जब अर्जुन एकदम निर्बल हो जाता है तब उसकी बुद्धि जाग्रत् होती है। श्री- कृष्ण कहते हैं कि केवल बुद्धिसे काम नहीं चलेगा । योग आवश्यक है, कर्मयोग आव श्यक है। तिलक महाराजने अनेक प्रमाण देकर कर्मयोगकी आवश्यकता सिद्ध की है। मानो बुद्धिको गृहस्थाश्रम स्थापित करनेकी आवश्यकता बताई है। अर्जुनने इन दोनों प्रकारके योगयुक्त पुरुषोंके लक्षण पूछे। तब उसे स्थितप्रज्ञके लक्षण बताये गये और इससे अर्जुन दुविधामें पड़ गया । वह सोचने लगा कि ऐसा व्यक्ति कर्मी हुआ अथवा ज्ञानी । इसलिए कृष्णने तीसरे अध्यायमें कर्मका रहस्य बताया । कर्मके बिना प्राणी रह ही नहीं सकता। मीराबाईने वर माँगा कि हर सांसमें तेरा ही स्मरण होता रहे । हम श्वासको जान-बूझकर नहीं लेते-छोड़ते। वह अपने आप होता रहता है। जिस तरह स्वस्थ व्यक्ति साँस लेनेकी क्रिया अलिप्त होकर करता रहता है उसी प्रकार [ स्थित प्रज्ञ ] सभी कर्मोंमें अलिप्त रहता है। कर्म आरोग्यसूचक भी है और अना- रोग्य सूचक भी। उदाहरणके लिए जिसे श्वास-रोग होता है उसके साँस लेनेके ढंगसे ही रोग प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार जिसका दम घुट रहा हो, उसके श्वास लेनेके ढंगसे ही उसके कष्टकी सूचना मिलती है। इसी प्रकार हमारे अन्य कर्म भी आरोग्य- सूचक अर्थात् प्रयत्नहीन हो सकते हैं। जैसे जनकादिके हो गये थे । जनकादिका उदाहरण देनेके बाद श्रीकृष्णने अपना उदाहरण दिया और कहा कि मुझे भी अपना तन्त्र चलाते ही रहना पड़ता है। मैं तो एक क्षण भी आलस्य नहीं कर सकता । तू तो निद्रा ले सकता है, मैं नहीं ले सकता; तिसपर भी सदा अलिप्तका अलिप्त हूँ । यदि व्यक्ति इस तरह रहने लगे तो उसकी बुद्धि सौ वर्षतक तेजस्वी बनी रहे, बल्कि नित्यप्रति अधिक तेजस्वी होती चली जाये। किन्तु लोग विषयासक्त हैं। यदि विषयोंमें आसक्ति न हो तो अन्तिम अवस्थामें तो ज्ञानकी पराकाष्ठा प्राप्त होनी ही चाहिए । संसारमें हम इससे उलटी बात देखते हैं, किन्तु ऐसा दिखाई पड़ना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हम अपूर्ण मनुष्य हैं और अपूर्ण अनुभवके बलपर अपूर्ण सिद्धान्त निश्चित कर लेते हैं। इसलिए मानना चाहिए कि हम जो-कुछ देख रहे हैं उसमें कहीं कोई चूक है। वृक्षके फल तो देखो। वह जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, अधिकाधिक रसवन्त होता जाता है और विकसित होता जाता है। खजूर पककर गिर पड़ा और सूख गया । किन्तु वह इस तरह कितना स्वादिष्ट बन गया। इसी तरह जिस मनुष्यकी बुद्धि ईश्वरके नियमका उल्लंघन नहीं करती, उसका तो विकास ही होता चला जाता है । तथापि हम देखते तो यह हैं कि आदमी क्षीण होता जाता है और नष्ट होता जाता है। यह विषयी व्यक्तिके विषयमें ठीक है।