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'गीता-शिक्षण'

का भेद करने बैठ जाता है। शंका, मारने और न मारनेके विषय में नहीं है । न मारना उचित है यह तो सभी जानते हैं। शाश्वत धर्म मारना तो हो ही नहीं सकता। अर्जुन स्वतन्त्र रूपसे इस धर्मका पालन तो कर ही नहीं सकता; प्रश्न इतना ही है कि द्रोण और भीष्मके ऊपर वह तीर किस तरह छोड़े। इस तरह अर्जुन स्वजन और परजनका झूठा भेद लेकर बैठ गया। अर्जुन एक प्रौढ़ व्यक्ति है। अज्ञान की स्थिति में उसे समाधान नहीं है। वह कृष्णपर मुग्ध है और आतुर होकर कहता है कि तुम मुझे इसका निराकरण बताओ। जबतक कोई व्यक्ति इतना असहाय न हो जाये, उसे सच्ची सहायता नहीं मिलती। जबतक रोगकी परिस्थिति इतनी खराब नहीं हो जाती, हम परम औषधिके लिए आतुर नहीं होते। इसे प्रसूतिकी वेदना समझिए । नया जन्म प्राप्त करते समय वेदनाका जो आक्रमण होता है, वही अर्जुनपर हुआ है। वैसा ही हम सबपर हो और यदि हम सब वैसी वेदनाका अनुभव करने लगें, तो तर जायें ।

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दूसरे अध्यायमें हम यह देखते हैं कि जिज्ञासुको व्याकुलता होनी चाहिए। व्यक्ति- को ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब शरीर क्षीण हो जाता है और लगता है कि अब गये, तब गये । गजेन्द्र मोक्षसे भी यही ध्वनि निकलती है। द्रौपदी आदिके आख्यानमें भी हम यही देखते हैं। व्यक्तिको इसीके बाद ज्ञान मिलता है और उसकी बुद्धि संस्कारवान् बनती है। जब भक्तराजने देखा कि चारों ओर आग जल रही है तब वह अपनी स्त्री और बच्चोंकी चिन्ता किये बिना भागा। जब ऐसा हो तब कहा जा सकता है कि बुद्धि संस्कारवान् हो गई। तभी सारे परदे गिरते हैं। हृदय तो अपनी जगह है, किन्तु यदि आत्मापर अज्ञानका परदा पड़ा हुआ है तो कुछ करना सम्भव नहीं होता । ऐसे प्रश्नपर कृष्ण आत्मा और देहका अन्तर बतलाते हैं। एक तर्क देते हैं तथा समझाते हैं और तबतक समझाते चले जाते हैं जबतक अर्जुन रस- सिक्त नहीं हो जाता । उसे जो भारी चिन्ता थी, वह देहको लेकर थी। बताया गया कि चिन्ता आत्माके विषयमें होनी चाहिए। श्री कृष्ण अर्जुनसे कहते हैं कि ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं । आत्मा न मरता है, न मारता है। देह ही नाशवान है। इसे तू नष्ट ही मान । इसके विषयमें चिन्ता करनेकी कोई बात ही नहीं है। किन्तु यह तो तर्क हुआ । करना क्या चाहिए? मैं तुझे जो कुछ बताऊँ, यदि तू उसे करे तो पश्चात्तापको कुछ नहीं बचेगा। स्वल्प करेगा तो भी उससे महान् फल निकलेगा । जितना करते बने, उतना ही पर्याप्त हो जायेगा । तुझे यह समझ लेना चाहिए। जो व्यक्ति निश्चिन्त भावसे काम करता है, उसका क्या वर्णन है। दूसरे अध्यायमें ऐसे स्थितप्रज्ञको बात इसीलिए कही गई है। इसे सुनकर जिज्ञासु रससिक्त हो उठता है और उसमें अधिक जाननेकी उत्सुकता जागृत हो उठती है। अर्जुनको यहाँतक भक्तिकी सुगन्ध नहीं आई थी । भक्ति तो सब-कुछ भूलनेपर ही उत्पन्न होती है। जब मीराको यह प्रतीति हो गई कि चन्द्र और सूर्यका प्रकाश मिल जानेके बाद जुगनूकी जरूरत नहीं है, तब वह भक्त बनी। ऐसे भक्तको कर्मकी आवश्यकता यदि बचती ही है, तो अपने लिए

१. इस क्रमसे १३ वें क्रमतक साधन-सूत्रमें तिथि और दिन सूचित नहीं हैं।