पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर लिया था; इसलिए भगवान उससे कहते हैं कि दूसरेका काम चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, वह तेरा काम नहीं हो सकता। दूसरेके धर्मका पालन करना सदाचरण हो ही नहीं सकता, क्योंकि हम दूसरेके धर्मका भली-भाँति आचरण कर ही नहीं सकते । अपने ही धर्मका कर सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि अन्ततोगत्वा उसे अपना और दूसरेका, दोनोंके ही धर्मका संन्यास करना है; किन्तु धर्म अथवा कर्म- मात्रसे यह तत्काल तो मिल नहीं सकता। स्वाभाविक रूपसे प्राप्त होनेके कारण कोई धर्म, स्वधर्म होता है । निरभिमान होकर काम करनेवालेका कर्त्तव्य उसके पास ही पड़ा हुआ है । वह उसे अनायास ही प्राप्त रहता है। अनायास प्राप्त हमारा यह धर्म ही हम अच्छी तरहसे कर सकते हैं। यदि हमें ऐसा लगे कि हमें पाखाना साफ करनेका जो काम सौंपा गया है, हम तो उसकी अपेक्षा पढ़ानेका काम अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, तो यह एक मिथ्याभास है। पढ़ानेसे जितना लाभ होनेवाला है, उतना ही पाखाना साफ करनेसे भी होगा। एक दृष्टिसे यह विगुण है । विद्याभ्यासके आगे पाखाना साफ करना क्या चीज है ? सागरके सामने गंगा नदीकी भी क्या बिसात है ? गंगा अपने वक्षःस्थलपर नौकाएँ ही चला सकती है, जबकि समुद्रकी छातीपर बड़े-बड़े जहाज चल सकते हैं। गंगाका यह धर्म विगुण भले ही हो, किन्तु उसके लिए तो यही स्वधर्म है । ' होने' में विगुण होना और विगुण लगना, ये दोनों अर्थ हैं। किसी एक दृष्टिसे एक काम दूसरे कामसे श्रेष्ठ हो सकता है; किन्तु फिर भी हमारे लिए तो दूसरा, जो हमारा स्वधर्म है, अच्छा होगा ।

वर्णाश्रम धर्मका मूल इसी बात में है । यद्यपि आज चारों वर्णोंका लोप हो गया है, फिर भी हम उन्हें मानते हैं । भावनामें मानना भी अच्छा है । जो व्यक्ति देहा- तीत हो गया है उसे भी वर्णं अर्थात् अपने-अपने कार्य विभाजनको मानना पड़ता है। इसीलिए भगवानने अर्जुनसे कहा कि तेरा काम मारनेका है। 'स्वजन' और 'परजन ' का भेद किये बिना तू इस कामको यज्ञार्थ कर । 'विगुण' और 'स्वनुष्ठितात् ' ये दोनों ही एक-से सजातीय शब्द हैं ।

[१२]

'गीताजी' बड़ेसे-बड़ा मानसिक पाथेय है। चरखा बड़ेसे बड़ा शारीरिक संबल है । इसीलिए इसे मैंने सामने रखा है। इसे हमें जारी रखना है। प्रार्थनामें जिन श्लोकों- के विषयमें समितिने निश्चय किया, वे श्लोक विगुण हों तो भी उनका पाठ जारी रखना है। हर पन्द्रहवें दिन हम 'गीताजी के किसी अन्य अध्यायका पाठ शुरू करेंगे । जबतक 'गीताजी' कण्ठस्थ नहीं हुई है, तबतक इसमें कुछ अड़चन मालूम पड़ेगी। वैसी अवस्थामें थोड़ा कष्ट उठाकर 'गीताजी ' को खोलकर पढ़ लेंगे। यदि एक भी व्यक्तिने यह करना जारी रखा, तो वह सारे जगत्‌को श्रोता समझकर 'गीताका' पाठ करता चला जायेगा । जिसे अपना जीवन अहिंसक बना डालनेकी इच्छा है, उसके लिए यही योग्य है । जिसे आध्यात्मिक साम्राज्यका उपभोग करना है, यही उसका कर्त्तव्य है । जिसे अन्य कोई साम्राज्य प्राप्त करना हो, यह उसके लिए आवश्यक नहीं है । इसे हम रोज-रोज अधिकाधिक रसमय करते चले जायें, चेतनमय करते चले जायें।