पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६१
'गीता-शिक्षण'

आज तो यह एक सप्ताह-भरका बालक है। बादमें सूर्य-चन्द्रकी तरह नियमित रूपसे इसका उदय और अस्त होने लगेगा। आप लोग धीरे-धीरे इन श्लोकोंका अर्थ समझने- का प्रयत्न करते चले जायें ।

मैंने कहा, 'गीताजी' बड़ेसे-बड़ा ज्ञान-भोजन, ज्ञानामृत है। मेरा यह कहना अवश्य ही साभिप्राय है। कण्ठस्थ तो इसे कोई भी कर सकता है। राक्षस और देवता दोनों ही इसे कण्ठस्थ कर सकते हैं। किन्तु मैंने इसे कण्ठस्थ करनेकी बात इसलिए कही है कि उसके बाद इसका सदुपयोग किया जाये, आडम्बर नहीं। कण्ठस्थ हो जानेके बाद चौबीसों घंटोंमें से किसी-न-किसी क्षण उसका विद्युत-स्पर्श हुआ करेगा। कोई-न-कोई श्लोक याद आ जायेगा और वह हमारा रक्षण करेगा । यह तो प्राणवायु है । जो व्यक्ति इसे श्रद्धापूर्वक पढ़ता रहेगा, उसके लिए यह कल्पद्रुम है। इसके द्वारा हमारे तीनों प्रकारके तापोंका शमन हो सकता है। यदि हम इस जीवनमें इस फलको प्राप्त न कर सकें, तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम अपनी श्रद्धाको विचलित हो जाने दें। यदि फल न आये तो उसका कारण हमारे प्रयत्नकी कमी होगी, वस्तुकी त्रुटि नहीं । यदि हम इसी भावनासे 'गीता'का स्वाध्याय करें तो वह ज्ञानामृत है।

[ १३ ]

स्वधर्म किसे कहें ? वर्णाश्रमका मूल इसी विचारमें है। वर्णाश्रम केवल हिन्दू- धर्मका एकाधिकार नहीं है। यह सारी दुनियामें पाया जाता है। यह बात देखते हुए आवश्यक है कि हम स्वधर्मका क्या अर्थ है, इसपर विचार करें। १८ वें अध्यायमें तो कहा गया है कि स्वधर्मका पालन करनेसे संसिद्धि प्राप्त होती है अर्थात् स्वधर्मका पालन प्राणियों के प्रति समभाव उत्पन्न कर देता है। इस नश्वर जगत्में पूरा-पूरा सादृश्य तो कहीं देखनेमें नहीं आता। किसी भी पेड़की दो पत्तियाँ एक-सी नहीं होतीं। फिर भी 'गीताजी' सबको समान भावसे देखनेका उपदेश करती है, सो किस तरह, इसे हम कल देखेंगे।

[ १४ ]

गुणहीन स्वधर्म, [ गुणयुक्त ] परधर्मकी अपेक्षा अच्छा है और सो भी इस हद तक कि उसमें मरना भी श्रेयस्कर है। हमें समझना है कि परधर्म भयावह बन जाता है। एकका काम दूसरेको नहीं करना चाहिए; यदि करेगा तो फल भयानक होगा। मान लीजिए कि किसी देशमें कोई शक्तिशाली मन्त्री है। एस्क्विथ राज्यके सेनापति भी ऊपरके पदपर था; उसका काम था आदेश जारी करना और सेनापतिका काम था, उनपर अमल करना । किन्तु मान लीजिए कि एस्क्विथ अहंकारमें आकर सेनाका नेतृत्व भी करना चाहता तब तो देशका नाश हो जाता । मन्त्रीका पद राजाके बादका पद है। फिर भी यदि वह परधर्म अर्थात् सेनापतिके धर्मका आचरण करना चाहे, तो फल बड़ा भयानक होगा । अब सेनापतिकी बात सोचिए । मान लीजिए कि सेनापति ऐसा सोचने लगे कि मैं और ऊँचा चढ़ जाऊँ, प्रधान बन जाऊँ और किसीको सेनापति बनाकर उसे हुकम देने लगूं; पर इससे राज्यमें बड़ी उथल-पुथल मच जायेगी और राज्यका नाश हो जायेगा । वह जिस पदपर था, वह भी उसके हाथसे