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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ये आँकड़े प्रत्येक समाज-हितेच्छुको चौंकानेवाले हैं; विशेषरूपसे दयाधर्मीको। मैं जानता हूँ कि जितने कुत्ते काटते हैं वे सबके सब पागल नहीं होते, लेकिन कौनसा कुत्ता पागल है और कौन-सा नहीं, इसकी पहचान करना मुश्किल है। और चूँकि कई मामलोंमें यह सिद्ध हुआ है कि काटनेवाला कुत्ता पागल था अतः लोग डरके मारे अस्पताल दौड़े आते हैं। इस डरसे उन्हें मुक्त करनेका एक ही उपाय है और वह यह कि आवारा कुत्तोंको आवारा न रहने दिया जाये। चालीस वर्ष पूर्व जब इंग्लैंडमें पागल कुत्तोंके काटनेके उपद्रवके खिलाफ कदम उठाये गये तब में वहाँ था। वहाँ आवारा कुत्ते तो थे ही नहीं। फिर भी कुत्ता पालनेवालोंके लिए सरकारने यह कानून बनाया कि जिन कुत्तोंके गलेमें पट्टी न होगी और उस पट्टीपर मालिकका नाम-धाम नहीं होगा और जिन कुत्तोंके मुँहपर जालीदार जाबी नहीं होगी उन कुत्तोंको मार दिया जायेगा। यह कानून केवल दयासे प्रेरित होकर बनाया गया था! उसके परिणामस्वरूप दूसरे ही दिन लन्दनमें सारे कुत्तोंके गलेमें पट्टा और मुँहपर जाली दिखाई देने लगी; उन्हें मारनेकी जरूरत क्वचित ही पड़ी होगी। यदि हममेंसे कोई ऐसा मानते हों कि पश्चिमके लोगोंमें जीवदया नहीं है तो वे अज्ञानमें हैं। जीवदयाका आदर्श वहाँ नीचा है लेकिन जो आदर्श है उसपर वे हमसे ज्यादा दृढ़ताके साथ अमल करते हैं। हम आदर्शकी उच्चतासे सन्तुष्ट हो जाते हैं और अमलके बारेमें उत्साहहीन अथवा आलसी होते हैं। बेघरबार मनुष्यों, ढोरों और अन्य प्राणियोंकी ओर देखिए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हम घोर अन्धकारमें पड़े हुए हैं। ये हमारे धर्मके नहीं अधर्मके चिह्न हैं।

तीसरा प्रश्न यह है:
आप व्यक्तिगत और सामाजिक धर्मको भिन्न-भिन्न व्याख्या करते हैं, यह तो मैंने सुना है, लेकिन व्यक्तिगत धर्मके अनुसार ही सामाजिक धर्मकी व्याख्या करनेमें क्या हर्ज है? आदर्श ध्येय तो सबके लिए सर्वश्रेष्ठ ही होना चाहिए न? उसका पालन न हो सके, न हो सकता हो, यह अलग बात है। और यह बात तो व्यक्तिगत धर्मपर भी लागू होती है। आप ही ने कहा है कि अपने जीवनको जोखिममें डालकर क्रूर पशुको भी बचानेकी मेरी भावना है; लेकिन ऐसा प्रसंग आयेगा तब में क्या करूँगा, सो में नहीं कह सकता। सामुदायिक धर्मके लिए भी यदि हम यही आदर्श स्वीकार करें तो दोनों धर्मोकी व्याख्या पृथक्-पृथक् करनेकी जरूरत ही कहाँ रह जाती है?

व्यक्तिगत और सामाजिक धर्मकी व्याख्या मैंने अलग-अलग मानी ही नहीं है। धर्मका सिद्धान्त तो [दोनोंके लिए] एक ही होता है लेकिन उसपर अमल करनेकी मर्यादा मैंने व्यक्ति और समाजके लिए भिन्न-भिन्न मानी है। वस्तुतः अमल करनेकी मर्यादा तो हर व्यक्तिकी भी अलग-अलग होती है। ऐसे किन्हीं दो पुरुषोंको में नहीं जानता जिनकी अहिंसा धर्मकी व्याख्या समान होते हुए भी अहिंसा के पालनकी सीमा एक ही हो। सामाजिक अमलकी मर्यादा समाजके सब सदस्योंकी क्षमताके