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क्या यह जीवदया है? - ५

औसतके अनुसार होती है। उदाहरणके लिए, जहाँ समाजका एक भाग दुग्धाहारी और दूसरा फलाहारी हो वहाँ इस सम्बन्धमें सामाजिक व्यवहारकी मर्यादा दूध और फलाहारकी मानी जायेगी अर्थात् दोनों अपनी-अपनी मर्यादामें रहकर व्यवहार करेंगे।

इन प्रश्नोंके बाद पत्र लेखकने दो जैन सिद्धान्तोंका इस तरह निरूपण किया है:

जैन सिद्धान्तकी रचना स्थाद्वादके आधारपर की गई है। स्थाद्वादको अनेकान्तवाद भी कहते हैं। स्याद्वादके अनुसार व्यवहारके लिए कोई निरपेक्ष नियम नहीं हो सकता।
मतलब यह है कि अमुक परिस्थितियों में जिस कार्य-विशेषको हिंसा कहा जायेगा उसे ही भिन्न परिस्थितियों में अहिंसा माना जा सकता है। लेकिन प्रत्येक मनुष्यको विवेकपूर्वक और सोच-समझकर इस बातका निर्णय करना चाहिए। जैन समाजकी दो शाखाओं, साधुओं और श्रावकोंने अपने-अपने धर्मको व्याख्या इस प्रकार की है:
साधु — सर्वथा अहिंसक। अपने जीवनकी रक्षाके लिए खाता भी नहीं; खानेके लिए पकाता भी नहीं यहाँतक कि एक कदम भी नहीं उठाता। जो कुछ करता है कल्याण सिद्धिके लिए तथा जहाँतक बन सके वहाँतक दोषोंसे मुक्त रह कर। इन दोषोंकी संख्या ४२ कही गई है। साधुको जैन-दर्शन में निग्रंथ कहा गया है; त्यागी, सर्वथा त्यागी कहा गया है। मेरा खयाल है कि इस समय इस व्याख्या और कल्पनाके अनुरूप एक भी साधु नहीं है (हो तो अपने अल्पज्ञानके कारण में नहीं जानता)।
श्रावक निरपराधी होता है; उसे जिसकी जरूरत न हो और जिसमें उसका स्वार्थ न हो, ऐसे किसी भी जीवकी वह हत्या नहीं करता।
श्रावक संसारी है। इसलिए शास्त्रकारोंने ऐसा माना है कि वह इससे ज्यादा दयाका पालन नहीं कर सकता। और आदर्श दयाका माप गणितकी भाषामें] बीस मानकर ऐसा नियम निश्चित किया है कि साधु तो पूरी बीस अंश दयाका पालन करेगा और श्रावक सवा अंश दयाका पालन करेगा। यदि श्रावक इससे ज्यादा दयाका पालन करता है तो माना जायेगा कि साधुवृत्तिकी ओर बढ़ रहा है। लेकिन श्रावकावस्थामें इससे ज्यादा दयाका पालन करना असम्भव ही है।

इस निरूपणसे मैं अपरिचित न था। मैं तो जानता ही हूँ कि मैंने जो मत प्रकट किया है वह जैन सिद्धान्तोंमें स्वीकृत मतका विरोधी नहीं है। उपर्युक्त निरूपण यदि जैनोंको मान्य हो तो मेरा मतलब उसीमें से निकाला जा सकता है। लेकिन यह सिद्धान्त जैनोंको मान्य हो या न हो, मेरी नम्र रायमें मेरे द्वारा व्यक्त किये गये अभिप्रायका प्रतिपादन स्वतन्त्र रूपसे हो सकता है और हुआ है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ७-११-१९२६