पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/९

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भूमिका

इस खण्डमें ५ नवम्बर, १९२६ से २० जनवरी, १९२७ तकका समय लिया गया है जो अपेक्षाकृत शान्तिकाल था । राजनैतिक गतिविधियाँ मन्दी होनेके कारण गांधीजी को लगातार यात्रा करने तथा आम सभाओंमें बोलनेसे छुटकारा मिला। उन्होंने इस समयका उपयोग कताई व खादी प्रचार, छुआछूतका विरोध, मद्यनिषेध, हिन्दू-मुस्लिम एकता और गो-रक्षा आदि कार्योंकी देखरेखमें लगाया जो उन्हें राजनीतिकी अपेक्षा कहीं ज्यादा प्रिय थे। इसके अलावा इस समयका उपयोग उन्होंने विभिन्न क्षेत्रोंसे प्राप्त होनेवाले पत्रोंके उत्तर देनेमें भी किया।

किन्तु इन सबसे भी बड़ी जो चीज थी वह यह कि उन्हें इस अवधि में आत्म- निरीक्षण और आध्यात्मिक मूल्योंपर विचार करनेका अवसर मिला। इस तरहके सवालोंमें एक सवाल लावारिस कुत्तोंका था जिसने गांधीजीके मनको उद्वेलित कर रखा था। गांधीजीके शब्दोंमें प्रश्न यह था कि "अमुक परिस्थितियोंमें जब अन्य सब उपाय व्यर्थ सिद्ध हो जायें तब कुत्तोंको मारना अहिंसाकी दृष्टिसे धर्म हो सकता है या नहीं? मैं मानता हूँ कि हो सकता है और इस बारेमें दो मत नहीं हो सकते, ऐसा मैं अब मी मानता हूँ ( पृष्ठ ४२-४३)।

स्पष्ट ही इस सम्बन्धमें दो मत थे। उन लोगोंने गांधीजीको नफरतसे भरे बड़े कड़े पत्र लिखे जिनकी मान्यताएँ अहिंसाके बारेमें औपचारिक तथा बाह्य स्वरूपकी थीं। गांधीजीने अहिंसाको जैसा स्वयं समझा था उसके अनुसार उन्होंने उसके सिद्धान्तोंका बड़ा सरस और स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए एक लेखमाला में अपने आलोचकोंको जवाब दिया। "क्या यह जीवदया है? शीर्षकसे पिछले खण्डमें शुरू की गई यह लेखमाला इस खण्डमें समाप्त हो रही है। गांधीजी कहते हैं: “कर्म-मात्र सदोष है, क्योंकि उसमें हिंसा है । तथापि कर्मके क्षयके लिए भी हम कर्म ही करते हैं। ...लेकिन यह हिंसा अल्पतम हो, उसके पीछे केवल करुणा हो, विवेक हो, तटस्थता हो और वह सहज प्राप्त धर्म हो। . . . स्वयं दुख उठाकर, यहाँतक कि मृत्यु होती हो तो उसे भी स्वीकार करके, दूसरोंको सुख भोगने देनेका नाम ही अहिंसा धर्म है। अमुक व्यक्ति किस हदतक यह दुख उठानेको तैयार है, उसका अन्दाज कोई तीसरा व्यक्ति नहीं लगा सकता। धर्म एक है और अनेक भी है, क्योंकि आत्मा भी एकानेक है" (पृष्ठ ३७३-७४)।

इस खण्डमें उनके 'गीता-शिक्षण' का स्वाभाविक ही गौरवपूर्ण स्थान है। यह आश्रममें उनके अवकाशपूर्ण स्वाध्याय-कालका सर्वोत्तम सुफल है। खण्डका श्रीगणेश होता है गांधीजी द्वारा श्रीमद्राजचन्द्रके व्यक्तित्व-विश्लेषणसे, जो 'गीता-शिक्षण' जैसी उनकी इस सहज-स्फूर्त रचनाकी उपयुक्त भूमिका-सा बन पड़ा है। श्रीमद्राजचन्द्र-जैसे सन्मित्रने ही सन् १८९३-९४ में स्वधर्मके प्रति गांधीजीके मनमें उठे अनेक सन्देहोंका निरसन किया था, और उन्हें आश्वस्त किया था कि अन्य और किसी धर्ममें हिन्दू-धर्म जैसी विचारोंकी सूक्ष्मता तथा गूढ़ता, आत्मदर्शन अथवा उसकी जैसी उदारता नहीं है;