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और इसी आश्वासनके परिणामस्वरूप वे अपनी खोई हुई मनःशान्तिको पुनः प्राप्त कर सके थे । उन दिनों गांधीजीको जिस बातकी अत्यन्त आवश्यकता थी, और जो श्रीमद्राजचन्द्र द्वारा दिये गये उनके प्रश्नोंके उत्तरोंने और श्रीमद् द्वारा भेजी गई पुस्तकोंने उन्हें प्रचुर मात्रामें प्रदान की, वह थी आध्यात्मिक प्रेरणा और आत्मानुभूति तथा इसी जीवनमें मोक्ष प्राप्तिकी एक आशा और झलक, जिनकी प्राप्तिके लिए कठो- रतम उत्तरदायित्वके साथ नैतिक अनुशासनका परिपालन कोई भी मानव, दूसरोंको छूट देते हुए भी, अपने लिए स्पृहणीय मानेगा। श्रीमद्राजचन्द्रने जो पुस्तकें गांधीजीको भेजीं और जिनके स्वाध्यायका सुझाव दिया उनमें एक थी 'योगवाशिष्ठ' का मुमुक्षु प्रकरण। इस प्रकरणमें सांसारिक समस्याओंका मुकाबला करनेके लिए मानवीय पुरुषार्थ की बड़ी हिमायत की गई है तथा पग-पगपर उपस्थित होनेवाली अनुभूतियोंका परि- शीलन और गुण-दोषोंका विश्लेषण करनेका निर्देश किया गया है। अतः जब गांधीजी मेटलैंड और टॉलस्टॉयके विचारोंके सम्पर्क में आये तो वे अपने परम्परागत वैष्णव धर्मकी परिसीमामें उनका समावेश और प्रयोग करनेके लिए तत्पर हो सके, क्योंकि तबतक श्रीमद्राजचन्द्रके सत्परामर्शसे प्रभावित होकर वे मुमुक्षत्वकी दीक्षा ले चुके थे। मोक्षकी भावनासे अभिभूत धर्ममय जीवनकी इसी आन्तरिक पुकारको गांधीजी एकमात्र समुचित दीक्षा मानते थे। कोई भी सच्चा धर्म किसी-न-किसी अध्यात्म-भूमिकापर अपने अनुयायियोंसे इसकी अपेक्षा करता है।

विविध कारणोंसे गांधीजीने यद्यपि श्रीमद्राजचन्द्रको परम्परागत अर्थ में अपना गुरु नहीं माना परन्तु वे उनके इस परामर्शके लिए अत्यन्त अनुग्रहीत थे कि मानवको अपने ही धर्मके प्रति आस्थावान बना रहना चाहिए, दूसरे धर्मोका समादर करना चाहिए और कालान्तरमें सारे धर्मोका अतिक्रमण कर देना चाहिए; क्योंकि आखिरकार ये धर्म सीमाओं में बँधे विविध दायरे ही तो हैं, जिनमें मानव मात्र आबद्ध हैं। प्रत्येक धर्ममें जो कुछ उत्कृष्ट है उसका अध्ययन करते हुए और उस-उस धर्मके अनुयायियोंको उसका सार समझाते हुए एक सत्यान्वेषी इस निष्कर्षपर पहुँचता है कि 'अमुक सीमाके बाद शास्त्र सहायता नहीं करते, अनुभव करता है" (पृष्ठ ९); क्योंकि उस सीमाके पार पहुँच जानेपर शास्त्र भी एक बन्धन बन जाता है और साधककी प्रगतिमें बाधक होने लगता है। चूँकि प्रत्येक धार्मिक विश्वासके परे जाकर उसे अनुभूतिमें रूपान्तरित करना होता है अतः "सब कोई अपने-अपने धर्ममें ही रहकर अपनी स्वतन्त्रता अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि मोक्ष प्राप्त करनेका अर्थ है सर्वथा राग-द्वेष रहित होना" (पृष्ठ ११)।

'गीता-शिक्षण' में स्थान-स्थानपर 'बाइबिल, 'कुरान', और 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस तथा स्वयं श्रीमद्राजचन्द्रकी कृतियोंका उल्लेख किया गया है जिनके कारण गांधीजीकी यह तत्परता और योग्यता प्रकट होती है कि वे 'गीता'को निरा एक साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं मानते; वे उसे विश्व-धर्मकी पोथी और शुद्ध नीति-शास्त्रका ग्रन्थ मानते हैं, "जिसे सभी धर्मावलम्बी पढ़ सकते हैं" (पृष्ठ ३४७)। गांधीजी सम्पूर्ण 'महाभारत' की ही तरह 'गीता 'की व्याख्या भी आध्यात्मिक एवं लाक्षणिक ढंगसे करते हैं। व्यासजीने जिस युद्धका वर्णन किया है, उनकी दृष्टिमें