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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अपने मनमें सोचा कि इस भयंकर अन्तरपर केन्द्रीय विधान-सभामें रोज आनेवाले सदस्योंकी निगाह क्यों नहीं जाती, जिसपर मेरी निगाह उन थोड़ेसे ही क्षणोंमें जा पड़ी जो मैंने नई दिल्लीमें गुजारे थे।

मैंने किसी भी सदस्यसे उसके बारेमें कुछ नहीं कहा है। परन्तु क्या आप इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते ? मैंने तो किसीसे इसलिए नहीं कहा कि मेरे कहनेका किसीपर कोई असर नहीं होगा। लेकिन शायद आप इस बारेमें कुछ करना ठीक समझें। आप दीनबन्धु हैं, और उन दोन मजदूरोंका कुछ कष्ट दूर करा सकते हैं। जो हो, आपके सामने अपना दिल हलका किये बिना मुझसे तो नहीं रहा गया ।

लेखिका बहनने हिन्दीमें लिखे अपने पत्रमें जो कुछ लिखा है उसका सारांश मैंने यहाँ दिया है। धनिकों और मजदूरोंके रहन-सहनमें हम जो अन्यायपूर्ण अंतर देखते हैं, आजकल यह कोई नई चीज नहीं है। लेखिकाको जिस बातका अनुभव हुआ है वह उस अन्वेषणकी याद दिलाता है, जो कहते हैं कि गौतम बुद्धको सदियों पहले हुआ था। उन्होंने जो बात देखी थी वह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन वृद्धावस्था, रोग तथा अन्य दुःखोंके दृश्योंने बुद्धके जीवनको एकदम बदल दिया, और संसारके जन-जीवनपर गहरा असर डाला। अच्छा हुआ कि इन बहनके दिलको भी यह पहली चोट लगी। यदि वे और भारतकी अन्य सुसंस्कृत स्त्रियां, जिन्होंने इन जैसे गरीबोंके बलपर शिक्षा प्राप्त की है, जिनका पत्रलेखिकाने इतना करुणाजनक वर्णन किया है, यदि और गहरी पैठकर और उन गरीबोंके दुःखको अपना दुःख मानकर उन्हें उसका कुछ बदला चुका दें, तो उन बेचारोंकी इस दीन दशाके कुछ सुधरनेमें अधिक समय नहीं लगेगा। प्रत्येक महल जिसे हम भारतमें देखते हैं, भारतकी सम्पत्तिका द्योतक नहीं है, वरन् सम्पत्ति से कुछ लोगों को मिलनेवाली ताकतके औद्धत्यका द्योतक है और यह सम्पत्ति भारतके लाखों-करोड़ों गरीब मजदूरोंको उनके श्रमका बहुत कम पुरस्कार देकर इकट्ठी की जाती है। हमारी यह सरकार लाखों श्रमजीवियोंके शोषणपर आधारित है और वह इस शोषणपर ही टिकी हुई है।

एक मित्रने अभी कुछ दिन पूर्व मेरे पास इंग्लैंडके किसी पत्रकी एक कतरन भेजी थी। इसमें लिखा था कि एक अंग्रेजकी जरूरतें पूरी करनेके लिए भारत में १,५०० रुपये मासिक वेतन देना काफी नहीं है। इसमें अंग्रेजोंको सावधान किया गया था कि यदि उन्हें १,५०० रुपये से अधिक वेतन न मिले तो वे भारतमें नौकरीके लिए जानेका साहस न करें। रहन-सहनके इस स्तरके विषयमें वाद-विवादकी कोई जरूरत नहीं है। लेखककी दृष्टिसे तो १,५०० रुपये स्पष्टतः कम ही हैं, क्योंकि क्लबका खर्चा, मोटर, गर्मीके मौसममें किसी पहाड़की सैर और इंग्लैंडमें बच्चोंकी पढ़ाई, उसकी कमसे-कम अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इस स्तरके सम्बन्धमें केवल यही कहा जा सकता है और जरूर कहा जाना चाहिए कि यदि एक अंग्रेजकी कमसे-कम जरूरतें ये हों, तो वह गरीब भारतकी ताकतसे बाहर खर्चीला है और अंग्रेजोंकी सेवाएँ