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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आनेवाली ऐसी सन सनीखेज खबरोंपर विश्वास नहीं करेगी, जिनकी ठीकसे पुष्टि न की गई हो। पर हम आशा करते हैं कि परम माननीय श्रीनिवास शास्त्री शीघ्र ही दक्षिण आफ्रिकाके लिए रवाना हो जायेंगे और तब हमारी इस सारी चिन्ता और डरका कारण दूर हो जायेगा। इसलिए तारके दक्षिण आफ्रिका सम्बन्धी भागपर और चर्चा न करके अब मैं धान-कुटाईकी उन मिलोंकी बातपर आता हूँ, जिनकी बुराइयोंसे श्री एन्ड्रयूजको इतना खेद हुआ है कि उन्हें अपनी राय हमें तार द्वारा बतानी पड़ी है। पाठक इस मामलेमें श्री एन्ड्रयूजकी चिन्ताको मेरे यह बतानेपर समझेंगे कि अपने भारत निवासके दौरान उन्हें वान-कुटाईकी मिलोंके बीच ही रहना होता है। क्योंकि जब वे पहले-पहल बोलपुरके समीपवर्ती स्थान 'शान्तिनिकेतन' में गये थे तब बोलपुरमें घान-कुटाईकी एक भी मिल नहीं थी; परन्तु आज तो उस स्थानमें, जो एक समय में बिलकुल शान्त स्थान होता था, वान-कुटाईकी कई मिलें चल रही हैं। उन्होंने मुझसे बोलपुरमें धान कुट इन मिलोंके चालू होने के बादसे होनेवाले शोरगुल, धूल और धुएँकी और धोखाधड़ीके व्यापारकी चर्चा कई बार की है । और साथ ही कई बार इस बातकी भी चर्चा की है कि इन मिलोंकी स्थापनाके कारण धानकी हाथ-कुटाईका एक उपयोगी गृह-उद्योग हमसे छिन गया है । इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं हो सकता कि हाथ-कुटा चावल मिलके कुटे चावलकी बनिस्बत कहीं अच्छा होता है । लेकिन मिलोंकी बुराईके विषय में मेरी अपेक्षा डाक्टर और वैद्य अधिक अधिकारपूर्वक कुछ कह सकते हैं। पर निःसन्देह जब हम उन क्षेत्रों में जाते हैं जहाँ मिलें जम गई हैं, तो इन मिलोंसे होनेवाली नैतिक बुराई हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है। श्री एन्ड्र्यूजने अपने नम्र स्वभावके कारण और भारतके प्रति अपने असीम प्रेमके कारण मुझसे अनुरोध किया है कि मैं इस कामको अपने हाथ में ले लूं, किन्तु मैं तो बीमार हूँ और चारपाईपर पड़ा हूँ। परन्तु यदि में चारपाईपर न भी पड़ा होता तो भी इस बुराईको देखते जानते हुए कि हमारे गृह-उद्योग दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक नष्ट किये जा रहे हैं, में इस कामको अपने हाथमें न लेता, क्योंकि मैं तो अपने आपको एक ऐसा कार्यकर्ता समझता हूँ जिसे अपनी क्षमताकी सीमाओंका पूरा-पूरा ज्ञान है और जो उनका उपयोग बड़ी किफायतसे करता है। में महसूस करता हूँ कि हाथ-कताईको पुनर्जीवित करनेके अपने प्रयत्नों द्वारा में इस बुराईकी जड़ ही काट रहा हूँ और यह एक काम ही इतना बड़ा है, जिसमें मेरी पूरी शक्ति लग जाती है। मुझे यह भी लगता है कि यदि यह आन्दोलन सफल हो गया, जैसा कि मुझे दिन-ब-दिन ज्यादासे-ज्यादा यकीन होता जा रहा है कि यह जरूर सफल होगा, तो धान-कुटाईकी मिलोंकी ये बुराइयाँ जिनकी ओर श्री एन्ड्रयूजने मेरा ध्यान आकर्षित किया है तथा अन्य बुराइयां भी जो गिनाई जा सकती हैं, अपने-आप मिट जायेंगी। हमें यह सोचनेकी भूल नहीं करनी चाहिए कि भारतमें जो गति चरखेकी हुई है और घानकी हाथ-कुटाई जैसे गृह- उद्योगकी आज भी जो गति हो रही है, उससे राष्ट्रीय जीवनको कोई क्षति नहीं पहुँचेगी, क्योंकि पश्चिममें ऐसी ही स्थिति आ चुकी है और इससे उसे कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ा है। पहली बात तो यह है कि अभी इसके बारेमें निश्चित रूपसे कुछ