१. पत्र: लालचन्द जयचन्द वोराको
[२१ जनवरी, १९२७][१]
आपका पत्र मिला। जमा और खर्च बराबर रखनेकी बात जैसे गोरक्षाके कार्य में आवश्यक है वैसे ही खादीकी प्रवृत्तिमें भी है। आरम्भमें तो हम भारी लाभकी आशा करते हैं; फिर भी थोड़ा-बहुत नुकसान हो ही जाता है। यह नुकसान हमेशा पूंजी खाते नामे लिखा जाता है। गोरक्षाके कार्य में भी फिलहाल नुकसान तो होगा ही। लेकिन नींव मजबूत हो जानेपर उसमें नुकसान नहीं होना चाहिए और किसी धार्मिक प्रवृत्तिकी नींव पक्की हो गई या नहीं, इसकी जाँच करनी हो तो पिछले दस वर्षोंमें उसकी कितनी प्रगति हुई है यह देखना चाहिए। यदि उसमें नुकसान उत्तरोत्तर बढ़ता जाये तो इसका अर्थ यह है कि उसकी नींव अभी पक्की नहीं हुई। है और उसमें सुधारकी आवश्यकता है। इस दृष्टिसे देखें तो खादी प्रवृत्ति अभी केवल छः वर्षकी है; फिर भी में देखता हूँ कि नुकसान वर्ष प्रतिवर्ष कम होता जाता है और कुछ स्थानोंपर उसका जमा और खर्च भी बराबरीपर आ गया है। काठियावाड़से भी यही आशा करता हूँ। इस मुद्देपर विचार करके आपको जो दोष दिखाई दें आप उनके बारेमें मुझे अवश्य लिखें।
मोहनदासके वन्देमातरम्
बगसरा, भायाणी
काठियावाड़, बी० बी० एण्ड सी० आई० रेलवे
- गुजराती (सी० डब्ल्यू० ७७५३) की नकलसे।
- सौजन्य: लालचन्द वोरा
- ↑ ढाककी मुहर से।