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३७१. पत्र : देवेश्वर सिद्धान्तालंकारको

नन्दी हिल्स (मैसूर राज्य)
२२ मई, १९२७

प्रिय मित्र,

मैंने आपका २९ जनवरीका पत्र इस आशासे सँभाल कर रखा है कि मैं किसी दिन आपको पत्र लिख सकूँगा। यह पत्र मुझे अपने दौरेके दौरान मिला था। पिछले तीन दिनोंके पहले मैं इसकी कतरनोंको नहीं पढ़ सका । बीमारीके बिस्तरपर लेटा हुआ मैं धीरे-धीरे अपने पत्र-व्यवहारको निबटा रहा हूँ और मैंने वे कतरनें पढ़ डाली वे बड़े महत्त्वकी हैं। कई एक स्थानोंपर आपके अनुवादका मूलसे ठीक मेल नहीं बैठता । परन्तु आपने निष्पक्ष रहनेके जो प्रयत्न किये हैं, उससे मुझे आशा होती है कि गलती लापरवाहीके कारण रह गई है।

आपने जिन उद्धरणोंका संग्रह किया है, वे निश्चय ही असमंजसमें डालनेवाले हैं। मैं धार्मिक ग्रन्थोंका अनुशीलन, जिनमें 'कुरान' भी शामिल है, आलोचनात्मक दृष्टिसे नहीं करता रहा हूँ। मैंने धार्मिक शान्ति प्राप्ति करनेकी दृष्टिसे इन ग्रन्थोंको सहानुभूतिपूर्वक पढ़ा है। इसलिए आपके द्वारा संग्रहीत अंशोंने जो प्रभाव आपके मस्तिष्कपर डाला है, स्वाभाविक है कि वैसा प्रभाव मेरे मस्तिष्कपर नहीं पड़ा है। पाठ्य-विषयकी आपने जो व्याख्या की है कि “धर्ममें हिंसाका समावेश नहीं होना चाहिए", यह व्याख्या मेरे लिए बिलकुल नई है और बिलकुल उलटा अर्थ देती है। व्याख्यारहित मूल पाठका यह अर्थ कदापि नहीं है। बहरहाल में इस सम्बन्धमें मुसलमान मित्रोंकी राय जानना चाहूँगा। परन्तु आपके द्वारा उद्धृत अंशोंको ध्यान- पूर्वक पढ़नेके बाद मैं इस निर्णयपर पहुँचा हूँ कि इस्लाम बलप्रयोगका धर्म नहीं है। परन्तु अन्य महान् धर्मोकी तरह शान्तिका धर्म है। मैं ऐसा इस कारण कहता हूँ कि में असंख्य मुसलमानोंसे मिला हूँ, जो मेरी और आपकी रह यह नहीं मानते कि अन्य धर्मावलम्बियोंको मौतके घाट उतार दिया जाये। ये मुसलमान किसी भी तरह धर्मका मखौल उड़ानेवाले नहीं है। वे अपने धर्मके कट्टर अनुयायी हैं। सूफियोंकी लम्बी परम्परामें शान्ति और प्रेमके प्रभासमान जीवन दर्शनका श्रेय 'कुरान 'को है । सूफियोंकी 'कुरान के प्रति श्रद्धा सन्देहास्पद नहीं है। मैंने मौलाना शिबलीकी पुस्तक 'लाइफ ऑफ द प्रोफेट' पढ़ी है और उन्हींकी रचना 'अल कलाम' के अंश भी पढ़े हैं। मैंने उनकी पुस्तक 'लीव्स फ्रॉम द लाइव्स ऑफ द कम्पेनियन्स ऑफ प्रोफेट' भी पढ़ी है। इन सारी रचनाओंने कुल मिलाकर मेरे मस्तिष्कपर जो प्रभाव डाला है वह अत्यन्त उत्कृष्ट कोटिका है। मुझे आशा है कि आपका यह अभिप्राय नहीं है कि मौलाना शिवली तथा अन्य इसी प्रकारके इस्लामके लेखकोंने जो कुछ लिखा है, वे उसपर स्वयं विश्वास नहीं करते या इन्होंने यह सब कुछ दूसरे लोगोंकी