तुम चाहो कि आगे ऐसा न किया जाये तो मुझे लिख देना। मैं यह नहीं चाहता कि तुम यह सोचकर कि तुम्हारे पत्रोंको कोई दूसरा देख सकता है, लिखने में बाधा मानो। हमारा रुख ऐसा होना चाहिए कि हम अपना हृदय तो वहीं उँडेल सकते हैं, जहाँ हमारे लिए ऐसा करना सम्भव है; परन्तु पानी चाहे जहाँ बह सकता है। मगर सभी लोग इस रुखको आसानीसे अंगीकार या पसन्द भी नहीं कर सकते। इस बारेमें तुम्हारा क्या खयाल है सो जरूर लिखना।
क्या तुम पहलेसे ज्यादा मजबूत हो रही हो?
तुम्हें चिंता न हो, इसलिए बता रहा हूँ कि मैं तुम्हें कमसे-कम हर सोमवारको तो पत्र लिखा ही करूँगा। डाक तुम्हारे पास कब पहुँचेगी, यह इसपर निर्भर है कि मैं कहाँ हूँ। खानदेश जानेके लिए जल्दीसे-जल्दी पहुँचनेका रास्ता कलकत्ता होकर है। इसलिए मैं पहली तारीखको खादी प्रतिष्ठान १७०, बहू बाजार स्ट्रीट, कलकत्तामें होऊँगा। हम गोंदिया, (बंगाल नागपुर रेलवे) दो तारीखको पहुँचेंगे। उसके बादके कार्यक्रमका मुझे पता नहीं है; लेकिन मैं ३ को नागपुर और वर्धा में होऊँगा। तुम मुझे वहाँ पत्र लिख सकती हो। उसके बाद तो जबतक में कार्यक्रमकी तारीखें न भेजूँ तबतक मेरा पता वर्धाका ही होगा। अतः वहींके पतेपर पत्र भेजना।
‘आत्मकथा’ के अध्याय[१] जैसे-जैसे तुम्हारे पास पहुँचते हैं, तुम उनमें सुधार करती जाती हो ? जब दौरा समाप्त हो जायेगा, तब तुम्हारे किए हुए सुधारोंको देखने में आनन्द आयेगा।
सस्नेह,
तुम्हारा,
बापू
- अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२००) से।
- सौजन्य : मीराबहन
६. पत्र: आश्रमकी बहनोंको
बेतिया
पौष वदी ६, १९८३ [२४ जनवरी १९२७]
आज हम बेतियामें हैं। यही वह शहर है जहाँ मैं १९१७ में[२] चम्पारनके कामके लिए ज्यादातर रहा था। इस इलाकेमें आमके अनेक बाग हैं। वे बहुत सुहावने लगते हैं। आसपासके प्रायः सभी स्थानोंमें राम-सीताके बारेमें कोई न कोई दंतकथा तो होती ही है। लेकिन मेरे लिए इन बातोंके वर्णनमें समय देना सम्भव नहीं है।