पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३८. हमारी बेबसी

शाही फरमान निकला है कि भारत अपनी सेनाएँ चीन भेजे। दिखानेके लिए तो ये सेनाएँ वहाँ विदेशियोंकी रक्षा करने जा रही हैं; किन्तु वस्तुतः तो वे जायेंगी वहाँ चीनियोंके स्वतन्त्रता-प्राप्तिके प्रयत्नको कुचलनेके लिए। इस मामलेमें केन्द्रीय विधानसभाका क्या विचार है, सो नहीं पूछा गया। उसे तो अपना कोई सामान्य सैद्धान्तिक मत व्यक्त करनेका भी अधिकार नहीं है। वाइसरायके विचारसे केन्द्रीय विधानसभा द्वारा इसपर किसी मतका व्यक्त किया जाना अनुपयुक्त है। केन्द्रीय विधान-सभाको अपनी भावनाएँ व्यक्त करनेसे रोकनेके लिए इतना ही पर्याप्त था।

केन्द्रीय विधान सभाके सदस्योंके लिए भारतकी विदेश-नीतिपर विचार करना ही नहीं, बल्कि उसका नियन्त्रण करना भी बहुत आवश्यक विषय है——यहाँतक कि उससे अधिक महत्त्वपूर्ण विषयकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारी बेबसी सबसे अधिक तभी प्रकट होती है जब भारतीय सिपाहियोंको बेशर्मीसे दूसरोंकी स्वतन्त्रताको कुचलनेके लिए इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल भारत संसारमें एशियाई तथा दूसरे गैर-यूरोपीय कौमोंके शोषणका प्रधान उपकरण है। उसे न केवल उसके स्वयंके शोषणके लिए वरन् नजदीक या दूरके उसके दूसरे पड़ोसी देशोंके शोषणके लिए भी दासताके बन्धनमें बाँध कर रखा गया है।

कोई ताज्जुब नहीं कि वाइसरायने दृढ़ और स्पष्ट शब्दोंमें अपनी घोषणामें कहा है कि इस तथाकथित सुधारमें और कुछ भी वृद्धि करानेके लिए भारतको ब्रिटिश संसदके आगे घुटने टेककर भीख माँगनी पड़ेगी। उसे अधिकारकी तरह कुछ भी पाने की आशा नहीं करनी चाहिए। ऐतिहासिक घटनाओंके संयोगसे इंग्लैंडको भारतपर प्रभुत्व मिला है। वह उसे जबतक कायम रख सके, रखना चाहता है। हर सुधार इसी सबसे बड़ी बातको ध्यानमें रखकर ही होगा।

यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसे कोई भी स्वाभिमानी भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता। अंग्रेजोंका प्रभुत्व ही एक ऐसी बात है, जिसे भारत बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसी बातको बिलकुल स्पष्ट करनेके लिए स्वतन्त्रावादियोंने देशके पूर्ण स्वातन्त्र्यके लिए गोहाटी [कांग्रेस अधिवेशन] में इतना संघर्ष किया था। उस समय उनकी मुराद पूरी न हो सकी; किन्तु इसकी उन्हें कुछ परवाह नहीं है। वे तो यही चाहते थे कि राष्ट्र यह भली-भाँति जान ले कि उसका एक यही ध्येय है, दूसरा नहीं।

मेरे जैसे कुछ लोग मनुष्य जातिके स्वभावमें अपने विश्वासपर अटल बने हुए हैं और यहाँतक कि उद्धत अंग्रेजोंके भी दर्पको ढीला करनेकी आशा रखते हैं, फिर आज इसके विपरीत चाहे जितने लक्षण क्यों न दिखाई पड़ते हों। चाहे औपनिवेशिक स्वराज्य मिले चाहे किसी और दर्जेका मगर हम अंग्रेज सरकारके अधीन रहना नहीं चाहते। हम तो पूर्ण समानता चाहते हैं। यह निश्चय करनेका अधिकार कि हमारे सैनिक क्या करें और कहाँ जायें, हमारा होना चाहिए, अंग्रेजोंका नहीं।